#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*श्री दादू अनुभव वाणी* टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*= निष्कामी पतिव्रता का अँग ८ =*
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दादू पतिव्रता के एक है, व्यभिचारिणी के दोइ ।
पतिव्रता व्यभिचारिणी, मेला क्यों कर होइ ॥५५॥
निष्काम साधक रूप पतिव्रता के हृदय में तो एक परमात्मा ही रहता
है । सकाम विषयी रूप व्यभिचारिणी के हृदय में देवादि तथा इन्द्रिय - विषयादि रूप
द्वैत रहता है । अत: पतिव्रता और व्यभिचारिणी का समता रूप मिलन कैसे हो सकता है ?
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पतिव्रता के एक है, दूजा नाहीं आन ।
व्यभिचारिणी के दोइ हैं, पर घर एक समान ॥५६॥
निष्काम पतिव्रत साधना की परिपाकावस्था में साधक रूप पतिव्रता के हृदय में ब्रह्मात्मा की एकता रूप अद्वैत ही रहता है । उसके हृदय में द्वैत - भाव कभी भी नहीं आता । सकाम विषयी रूप व्यभिचारिणी के हृदय में द्वैत ही रहता है । उसके विषय रूप पर - घर और परब्रह्म रूप निज - घर समान ही हैं । उसे साँसारिक विषयों से विक्षेप नहीं होता, अपितु रस आता है ।
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*सुन्दरी सुहाग*
दादू पुरुष हमारा एक है, हम नारी बहु अँग ।
जे जे जैसी ताहि सौं, खेलै तिस ही रँग ॥५७॥
५७ में साधक - सुन्दरी का सुहाग - सुख दिखा रहे हैं - हमारा परम पुरुष रूप पति तो एक है और हम साधक - सुन्दरी निष्काम कर्म, भक्ति, योग और ज्ञानादि साधन रूप लक्षणों वाली बहुत हैं । जिसकी जैसी भावना है, वह वैसे ही सगुण प्रेम का निर्गुण प्रेम रूप रँग के द्वारा उस परब्रह्म से ही चिन्तनानन्द,दर्शनानन्द आदि का अनुभव रूप खेल खेलती है ।
(क्रमशः)
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