बुधवार, 8 मार्च 2017

= विन्दु (२)९३ =

#daduji
॥ दादूराम सत्यराम ॥
*श्री दादू चरितामृत(भाग-२)* 
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*= विन्दु ९३ =*
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*= भोजराज की शंका और उसका समाधान =* 
भोजराज ने दादूजी को मस्तक नमा कर तथा हाथ जोड़कर कहा - स्वामिन् ! आपने तो ब्रह्म को अकथनीय कहा है किन्तु ब्रह्म के विषय में विद्वान् लोग कहते तो हैं । भोजराज की उक्त शंका का समाधान करने के लिये संत दादूजी महाराज बोले -
“अविगत की गति कोइ न लहैं, 
सब अपना उनमान कहैं ॥ टेक ॥ 
केते ब्रह्मा वेद विचारैं, के ते पंडित पाठ पढैं । 
केते अनुभव आतम खोजैं, केते सुर नर नाम रढैं१ ॥ १ ॥ 
केते ईश्वर आसन बैठें, केते योगी ध्यान धरैं । 
केते मुनिवर मन को मारैं, केते ज्ञानी ज्ञान करैं ॥ २ ॥ 
केते पीर केते पैगम्बर, केते पढैं कुराना । 
केते काजी केते मुल्ला, केते शेख सयाना ॥ ३ ॥ 
केते पारिख अंत न पावैं, वार पार कुछ नांहीं । 
दादू कीमत कोई न जाने, केते आवें जाँहीं ॥ ४ ॥” 
सभी अपने - अपने अनुमान के अनुसार ब्रह्म के विषय में कहते हैं किन्तु उस मन इन्द्रियों के अविषय ब्रह्म के स्वरूप का पार कोई भी नहीं पाता है । कितने ही ब्रह्मा वेद का विचार करते हैं । कितने ही पंडित पाठ पढ़ते हैं । कितने ही अनुभवी लोक अनुभव द्वारा आत्मा की खोज करते हैं । कितने ही देवता तथा नर नाम रटते१ हैं । कितने ही शंकर आसन पर स्थित रहते हैं । कितने ही योगी ध्यान धरते हैं । कितने ही मुनिवर मन को जीतते हैं । कितने ही ज्ञानी जन ज्ञानोपदेश करते हैं । कितने ही पीर पैगम्बर प्रयत्नशील हैं । कितने ही काजी मुल्ला और शेखादि चतुर लोग कुरान पढ़ते हैं । कितने ही परीक्षक परीक्षार्थ संलग्न हैं किन्तु कोई भी उस परब्रह्म के स्वरूप का अन्त नहीं पाता है । कारण, उसका वार पार कुछ है ही नहीं, वह तो असीम है । कितने ही संसार में आते हैं और अतिप्रयत्न करके चले जाते हैं किन्तु उस परब्रह्म की कीमत कोई भी नहीं जान पाता है, अतः वह आश्चर्य रूप है । उक्त पद को सुनकर भोजराज आदि सभी सभा - सदों ने मस्तक नमाकर स्वीकार किया । फिर दादूजी महाराज को प्रणाम करके नारायणा नरेश नारायणसिंह भोजराज आदि भाइयों के सहित राज महल को चले गये । 
छठे दिन मंत्री कपूरचन्द आदि के साथ नारायणा नरेश नारायणसिंह दादूजी महाराज के दर्शन व सत्संग के लिये त्रिपोलिया पर आये और प्रणाम करके बैठ गये । फिर मंत्री कपूरचन्द ने कहा - भगवन् ! परब्रह्म के यथार्थ स्वरूप का परिचय दीजिये वह कैसा है ? कपूरचन्द का उक्त प्रश्न सुनकर दादूजी महाराज ने यह पद बोला - 
*= कपूरचन्द के प्रश्न का उत्तर =* 
“ए हौं बूझ रही पिव जैसा है, 
तैसा कोइ न कहै रे । 
अगम अगाध अपार अगोचर, 
सुधि बुधि कोइ न लहै रे ॥ टेक ॥ 
वार पार कोइ अंत न पावे, आदि अंत मधि नांहीं रे । 
खरे सयाने भये दिवाने, कैसा कहां रहे रे ॥ १ ॥ 
ब्रह्मा विष्णु महेश्वर बूझे, केता कोई बतावे रे । 
शेख मुशायक१ पीर पैगम्बर, है कोइ अगह गहै रे ॥ २ ॥ 
अम्बर धरती सूर शशि बूझे, वायु वरण सब सोधे रे । 
दादू चकित है हैराना, को है कर्म दहै रे ॥ ३ ॥” 
हे भाई ! मैं भी पूछ - पूछ कर हार गया हूँ किन्तु प्रभु का जैसा स्वरूप है, वैसा कोई भी नहीं कहता है । वह अगाध, अपार, मन से अगम और इन्द्रियों से परे है । इन्द्रियों में से कोई भी उसका ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकती है । उसके वार पार का अन्त कोई भी नहीं पाता है । आदि, अंत, मध्य भेद तो उसमें है ही नहीं । वह कैसा है ? कहां रहता है ? ऐसा विचार करते - करते सच्चे ज्ञानी भी पागल हो गये हैं । ब्रह्मा, विष्णु और महादेव से भी पूछें तो वे कितना कहेंगे ? अर्थात् अपार ही कहेंगे । शेख और मुल्ला१ आदि धर्म के ज्ञाता, व पीर पैगम्बरादि में कोई ऐसा है जो मन इन्द्रियादि से न ग्रहण करने योग्य परब्रह्म को ग्रहण करके यथार्थ रूप से उसका अन्त कह सके ? आकाश पृथ्वी के बीच सूर्य चन्द्रादि को भी पूछे वायु तथा सभी रूप रंगादि को खोजे तो भी उस ब्रह्म के बिना कर्म बन्धन को जला सके ऐसा कौन है ? अतः उसका स्वरूप देखकर हम तो आश्चर्य चकित हो रहे हैं । उक्त परब्रह्म स्वरूप सबन्धी दादूजी महाराज का पद सुनकर सभासद आश्चर्यचकित थे । फिर नमस्कार करके नारायणसिंह आदि राज महल को चले गये । 
(क्रमशः)

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