शनिवार, 25 मार्च 2017

= विन्दु (२)९५ =

#daduji
॥ दादूराम सत्यराम ॥
*श्री दादू चरितामृत(भाग-२)* 
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*= विन्दु ९५ =*
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*= दादूवाणी के अंगों का क्रम =*
श्री दादूवाणी के अंगों का क्रम भी सुव्यवस्थित रूप से रखा गया है - देखिये - प्रथम गुरु द्वारा ही श्रवण होता है, अतः प्रथम गुरुदेव का ही अंग दिया है । गुरु द्वारा करने के पश्चात् ही कीर्तन स्मरण किया जाता है । इसलिये कीर्तन, स्मरण रूप द्वितीय स्मरण का अंग दिया जाता है । जिसका स्मरण किया जाता है, उसी में प्रेम तथा उसके वियोग के अनुभव से व्यथा होती है । इससे तृतीय विरह का अंग दिया है । विरह द्वारा प्रेम की परिपाकावस्था होती है तब ही प्रेमपात्र का साक्षात्कार होता है । इसी से साक्षात्कार - रूप स्थिति का वर्णन करने के लिये चौथा परिचय का अंग दिया है । 
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साक्षात्कार जन्य आनन्द को पचाने के लिये पंचम जरणा का अंग दिया है । धारण करते हुये तत्त्व के आश्चर्य का प्रदर्शन करने के लिये षष्ठ हैरान का अंग दिया है । आश्चर्य रूप ब्रह्म वृत्ति लय करने के लिये सप्तम लय का अंग दिया है । लय योग के साधक की निष्कामता और अनन्यता का परिचय देने को ही अष्टम निष्कामी पतिव्रता का अंग दिया है । भगवान् को निष्काम पतिव्रत अनन्यता प्रिय है, उसी की चेतावनी देने के लिये नवम चेतावनी का अंग दिया है । चेतावनी सुनकर मानव के हृदय में मनो - निग्रहादिक मन विषयक अनेक प्रश्न उठते हैं, इसीलिये दशम मन का अंग दिया है । 
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मन के अंग के पश्चात् मन के मनोरथ रूप सूक्ष्म जन्मों का परिचय देने के लिये एकादश सूक्ष्म जन्म का अंग दिया है । सूक्ष्म जन्म के अंग के पश्चात् जन्मों का कारण १२वां माया का अंग दिया है । मिथ्या माया के निरूपण के पश्चात् सत्य की जिज्ञासा होती है इसीलिये १३वाँ सांच का अंग दिया है । साँच अंग के अनन्तर इन्द्रियार्थी और आत्मार्थीं भेष का विचार करने के लिये १४वां भेष का अंग दिया है । भेष - अंग के अनन्तर संत विषयक विचार करने के लिये १५वां साधु का अंग दिया है । साधु अंग के अनन्तर संतों की पक्ष विपक्ष से रहित मध्य स्थिति का वर्णन करने के लिये १६वां मध्य का अंग दिया है । 
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मध्य अंग के अनन्तर सार ग्राहकता तथा सार ग्राहक सम्बन्धी विचार करने के लिये १७वां सारग्राही का अंग दिया है । सारग्राही के अंग अनन्तर अद्वैत प्रधान विचार करने के लिये १८वां विचार का अंग दिया है । विचार अंग के अनन्तर विश्वास की दृढ़ता के लिये १९वां विश्वास का अंग दिया है । विश्वाश के अंग के अनन्तर परमात्मा के स्वरूप परिचयार्थ २०वां “पीव पहचान का अंग” दिया है । पीव पहचान के अनन्तर परमेश्वर की सामर्थ्य का निरूपण करने के लिए २१वां ‘समर्थता’ का अंग दिया है । समर्थता अंग के अनन्तर शब्द सामर्थ्य का निरूपण करने के लिये २२वां “शब्द का अंग” दिया है । शब्द अंग के अनन्तर जीवन्मुक्त सम्बन्धी विचार करने के लिये २३वां “जीवित - मृतक का अंग” दिया है । जीवित - मृतक अंग के अनन्तर संत शौर्य का विचार करने के लिये २४वां “शूरातन का अंग” दिया है । शूरातन अंग के अनन्तर काल का विचार करने के लिये २५वां “काल का अंग” दिया है । काल अंग के अनन्तर सजीवन का विचार करने के लिये २६वां ‘सजीवन का अंग’ दिया है । 
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सजीवन अंग के अनन्तर परीक्षा - सम्बन्धी विचार करने के लिये २७वां ‘पारिख का अंग’ दिया है । पारिख अंग के अनन्तर उत्पत्ति का विचार करने के लिये २८वां “उपजन का अंग” दिया है । उपजन अंग के अनन्तर दयापूर्वक निर्वैरता का विचार करने के लिये २९वाँ “दया निर्वैरता का अंग” दिया है । दया निर्वैरता अंग के अनन्तर भगवद् वियोगी जीवात्मा रूप - सुन्दरी के भगवद् प्रेम का परिचय देने के लिये ३०वां “सुन्दरी का अंग” दिया है । सुन्दरी अंग के अनन्तर कस्तूरिया मृग के दृष्टांत से हृदयस्थ परमात्मा को बताने के लिये ३१वां ‘कस्तूरिया का अंग’ दिया है । कस्तूरियामृग अंग के पश्चात् निन्दा संबन्धी विचार करने के लिये ३२वां ‘निन्दा का अंग’ दिया है । 
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निन्दा अंग के पीछे कृतध्नी संबन्धी विचार करने के लिये ३३ वाँ “निगुणा का अंग” दिया है । निगुणा अंग के बाद भगवद-नुग्रहार्थ भगवान् से विनय करने के लिये ३४ वां “विनती का अंग” दिया है । विनती अंग के अनन्तर साक्षी स्वरूप का विचार करने के लिये ३५ वां ‘साक्षी भूत का अंग’ दिया है । साक्षी भूत अंग के पश्चात् बेली के रूपक से आत्मा का परिचय कराने के लिये ३६ वां ‘बेली का अंग’ दिया है । बेली अंग के अनन्तर जिसका सदा संयोग रहता है, उस एक अद्वैत अविनाशी ब्रह्मतत्त्व का विचार करने के लिये ३७वां “अविहड़ का अंग” दिया है । उक्त प्रकार ३७ अंगों का क्रम से साखी भाग में निरूपण किया गया है । 
(क्रमशः)

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