रविवार, 30 अप्रैल 2017

= १३ =


卐 सत्यराम सा 卐
*प्रेम पियाला राम रस,* 
हमको भावै येहि ।*
*रिधि सिधि मांगैं मुक्ति फल,* 
चाहैं तिनको देहि ॥* 
*कोटि वर्ष क्या जीवना,* 
अमर भये क्या होइ ।*
*प्रेम भक्ति रस राम बिन,* 
का दादू जीवन सोइ ॥* 
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साभार ~ ओशोधारा
वह जो अन्तर्देश है जहाँ हम रहते है(वासनाएं, इक्षाएं, ईर्ष्या, महत्वाकांक्षाएं, अहंकार, घृणा, हिंसा) वह है अन्तर्देश। वहां भीतर जब तक बुद्धत्व का जन्म न हो, अंधेरी रात ही रहती है। भीतर बुद्धत्व के आविर्भाव होते ही ईर्ष्या, इक्षाएं, महत्वाकांक्षाएं, अहंकार, घृणा, हिंसा ये सब विदा हो जाते हैं। जैसे मीरबाई मस्त थीं, हरखि-हरखि जस गायो। अब कहाँ जाना था। अब परमात्मा को छोड़कर कहीं नहीं जाना था। अंततः भक्त भगवान हो जाता है। क्योंकि उससे कम में तृप्ति नहीं है। 
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*कनक कटोरे इमरत भरियो,* 
*पीवत कौन नटे रे।*
मीराबाई कहती हैं : आश्चर्य है कि परमात्मा सोने के प्याले में अमृत लिए बैठा है, होना तो ये चाहिये कि कोई भी इसे इंकार न करे। लेकिन लोग नट रहे हैं, इंकार कर रहे हैं। लोग गोबर के कीड़े हैं, उन्हें गोबर में मजा आ रहा है। अमृत से लोगों का कोई सम्बन्ध नहीं है, जहर ही पीते रहे हैं, जहर में ही उन्हें स्वाद आता है। जहर पीते-पीते जहरीले हो गये हैं। अब जहर की ही पहचान है और कोई पहचान नही है। हम इस संसार में ऐसे लिप्त हो गया है कि हमे मीराबाई की बात समझ ही नही आती। ऐसा कौन है जो नट जाये? लेकिन करोड़ों-करोड़ों लोग इंकार कर रहे हैं। परमात्मा प्याला लिये हुये है, लेकिन हम इंकार किये जाते है।
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*मीरा कहै प्रभु हरि अविनाशी,* 
*तन मन ताही पटै रे।* 
जब से वह अविनाशी मिला है, जब से शाश्वत मिला है, मीराबाई कहती हैं तब से मेरा तन-मन, आत्मा सब एक हो गए हैं। भीतर जो खंड-खंड थे, वे समाप्त ही गये हैं और मैं अखंड हो गयी हूं। हम संसार में जीते है तो एक इच्छा कहती है, धन कमा लो, एक इच्छा कहती है, पद बना लो। हजार इच्छायें है, और हजार इच्छाओं के कारण हम भी हजार हो गये है। इन सबमें कलह है। हमे भीतर के अविनाशी से मिल के अखंड होना हैं। 

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