गुरुवार, 20 अप्रैल 2017

= मन का अंग =(१०/६१-३)


#daduji 
卐 सत्यराम सा 卐 
*श्री दादू अनुभव वाणी* टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*मन का अँग १०* 
घर छाड़े जब का गया, मन बहुरि न आया ।
दादू अग्नि के धूम ज्यों, खुर खोज न पाया ॥६१॥
जैसे अग्नि से निकल कर धुआं पीछे अग्नि में नहीं आता वैसे ही मन जब से अपने चेतन रूप घर को छोड़ कर विषयों में गया है, तब से पुन: बहिर्मुखता के कारण चेतन में लीन नहीं हुआ । विषयों में ही अदृश्य रहता है अज्ञानियों को उसका कुछ भी पता नहीं लगा है ।
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सब काहू के होत हैं, तन मन पसरे जाइ ।
ऐसा कोई एक है, उलटा माँहिं समाइ ॥६२॥
मन के विषयों में जाने वाली घटना सभी के यहां होती है । सभी के इन्द्रियरूप शरीर और मन विषय प्राप्ति की अभिलाषा से फैल कर विषयों में जाते हैं । ऐसा भगवद् भक्त कोई विरला ही होता है, जो इन्द्रिय और मन को प्रत्याहार द्वारा विषयों से लौटा कर भीतर स्थित आत्म स्वरूप ब्रह्म में ही लीन करके ब्रह्मानन्द में निमग्न रहे ।
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क्यों कर उलटा आनिये, पसर गया मन फेरि ।
दादू डोरी सहज की, यों आने घर घेरि ॥६३॥
प्रश्न - यह मन विषयाशा से फैल कर माया के छल में फंस गया है । इसे किस प्रकार लौटाकर आत्म स्वरूप में लगाया जाय ? उत्तर - सँकल्प - विकल्प रहित सहजावस्था रूप डोरी से ताड़ित करते हुये घेर कर, इस प्रकार चेतन रूप घर में लावें कि वह पुन: विषयों में न दौड़ सके, ब्रह्माकार ही बना रहे । 
(क्रमशः)

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