शनिवार, 1 अप्रैल 2017

= १६४ =

卐 सत्यराम सा 卐
पहली न्यारा मन करै, पीछै सहज शरीर ।
दादू हंस विचार सौं, न्यारा किया नीर ॥
आपै आप प्रकाशिया, निर्मल ज्ञान अनन्त ।
क्षीर नीर न्यारा किया, दादू भज भगवंत ॥ 
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साभार ~ Nishi Dureja
हाड़ जरै लकड़ी जरै, जले जलावन हार ।
कौतुकहारा भी जरै, कासों करों पुकार ।।
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जब आदमी मर जाता है तब शमशान घाट में ले जाकर लोग चिता रचकर चिता पर लाश को रख देते हैं और आग लगा देते हैं । चिता में आग लगती है शरीर जल जाता है । इस पर साहेब कहते हैं "हाड़ जरै" जिन हड्डियों से निर्मित शरीर को देखकर बड़ा अहंकार करता था कि मेरा शरीर बड़ा मजबूत है, बलवान है वे पुष्ट हड्डियाँ चिता में जल जाती हैं लेकिन केवल हड्डियाँ नहीं जलती, हड्डियों को जलाने वाली लकड़ियाँ भी जल जाती हैं । जिसने चिता में आग लगायी एक दिन वह आदमी भी जल जाता है ।
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इतना ही क्यों "कौतुकहारा भी जरै" उस शवयात्रा में शामिल लोग जो तमाशा देखने वाले थे, वे कौतुकहार शवयात्री भी एक दिन उसी चिता में जल जाते हैं । कौन बचता है ?
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सद्गुरु कहते हैं - मैं किससे पुकार करूँ? कौन संसार में ऐसा है जो मुझे बचा सके। कौन किसको बचा सकता है? बचा सकते हैं तो केवल अपने आपे को । दूसरा कोई हमारा रक्षक नहीं होगा ।

... जय हो ...

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