शनिवार, 15 अप्रैल 2017

= १८४ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू जोति चमकै झिलमिलै, तेज पुंज प्रकाश ।
अमृत झरै रस पीजिए, अमर बेलि आकाश ॥ 
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साभार ~ Rajnish Gupta

*((((((( महाकवि भक्त जयदेव )))))))*
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जिस कुल या वंश में कोई भगवद्भक्त जन्म लेता है तो उस कुल के समस्त पूर्वजों और वंशजों का उद्धार हो जाता है । 
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वीरभूमि से दस कोस दूर केदुली गाव में भोजदेव और रामादेवी नाम के एक दम्पती रहते थे जो कृष्णमार्ग के अनुयायी थे ।
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कृष्ण में अपार स्नेह श्रद्धा रखने के कारण इनकी अभिलाषा थी कि इनके घर में पुत्र पैदा हो जो कि कृष्ण जैसा हो । 
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भगवान कब भक्त की इच्छा की अवहेलना करते हैं । सम्बत् 1107 में इनके घर पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम जयदेव रखा गया ।
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माता-पिता के संस्कार और भगवान कृष्ण के प्रति आस्था को रक्त में लेकर जन्मे जयदेव भी श्रीकृष्ण के उपासक थे । 
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दैवयोग से बचपन में ही माता-पिता का स्वर्गवास हो गया । जयदेव यद्यपि अल्प आयु के बालक थे ।
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अन्य लोगों ने माता-पिता के स्वर्गवास को इनके जीवन पर आघात बताया परंतु जयदेव ने इस आघात को भगवद्भक्ति का निष्कंटक मार्ग समझकर वैराग्य से प्रीति लगाई और अपने जीवन को वह दिशा दे दी जिसके लिए बड़े-बड़े ज्ञानी तरसते हैं ।
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वैरागी होकर इनके होंठों पर कृष्ण का ही नाम रहता था । यह जगन्नाथ जी से प्रीति लगाकर पुरुषोत्तम क्षेत्र पहुंच गए जहां जगन्नाथ जी की महिमा सर्वत्र फैली हुई थी । 
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जब जगन्नाथ जी की यात्रा प्रारम्भ होती थी तो दूर-दूर से भक्त और कृष्ण भक्त आते थे ।
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जयदेव ने पुरुषोत्तम क्षेत्र में ही एक विद्वान ब्राह्मण से कुछ समय विद्याध्ययन किया था और अब वह क्षेत्र ही इनकी भक्ति का केंद्र बन गया था । 
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वैरागी तो थे ही। एक कमंडल और गुदड़ी के अतिरिक्त कृष्णधारा की सुरीली तान ही इनका खजाना थी ।
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एक पेड़ के नीचे बैठकर अपने सखा भगवान को सुमिरते रहते थे । जगन्नाथ जी अपने इस भक्त के सुमिरन से अत्यंत खुश थे ।
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उन्होंने स्वप्न में एक ब्राह्मण को जयदेव के लिए एक संदेश दिया । “हे ब्राह्मण, मेरे मंदिर के समीप एक वृक्ष के तले मेरा परमभक्त जयदेव मेरे ध्यान में लीन है ।
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वह एक उच्च गुणों वाला श्रेष्ठ भक्त है । तुम उसे अपनी कन्या दे दो और एक ऐसे यश के भागी बनो जिसके लिए बड़े-बड़े तपस्वी भी लालायित रहते हैं।”
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जगन्नाथ जी की आज्ञा से ब्राह्मण प्रात काल होते ही अपनी कन्या पद्मावती को लेकर जयदेव के पास पहुंचे और प्रभु की आज्ञा कह सुनाई ।
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“ब्राह्मणदेव मैं तो वैरागी हूं । मेरी साधना में विवाह का स्थान कहा है । उचित होगा कि आप इस रूपवती के लिए कोई सुयोग्य वर की खोज करें ताकि यह आनंदमय जीवन व्यतीत कर सके ।” जयदेव ने सरल उत्तर दिया ।
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“जयदेव जी आपसे सुयोग्य वर मुझे कहा मिलेगा जिसके लिए स्वय प्रभु जगन्नाथ जी ने मुझे आदेश दिया है ।”
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“संभवत: आप सत्य कहते हो परंतु वही जगन्नाथ जी ऐसे तो नहीं हैं जो मेरे हृदय से अपरिचित हों । क्या वह नहीं जानते कि मेरे हृदय में उनके अतिरिक्त अन्य कोई नहीं रह सकता ।” 
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“यह सब मैं नहीं जानता भक्त श्रेष्ठ !” ब्राह्मण ने कहा: “मैं तो उनकी आज्ञा से यहा आया हूँ और मेरी पुत्री आपकी शरण में है ।
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अब आप इसे रखें या न रखें यह आप पर निर्भर है । मैं तो अपने ऋण से उऋण हो गया ।” इतना कहकर ब्राह्मण पद्मावती को वहीं छोडकर चले गए। 
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“हे सुंदरी आपके पिताश्री की बाध्यता तो आस्था है परंतु आप तो शिक्षित हैं। अत: आप मेरी विवशता समझें और…।”
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“स्वामी मेरे पिता ने मुझे आपकी शरण में दिया है । अब मेरा भी यही कर्त्तव्य है कि एक हिन्दू पुत्री का कर्त्तव्य निभाऊं । मेरा लौटना मेरे कुल के लिए उचित नहीं और न ही स्त्री के लिए ।” 
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जयदेव दुविधा में पड़ गए । पद्मावती मन से उन्हें अपना पति वरण कर चुकी थी ।
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अंतत: एक रात जगन्नाथ जी ने जयदेव को भी स्वप्न में दर्शन दिए और उन्हें विवाह की आज्ञा दी । अब जयदेव कैसे पद्मावती का तिरस्कार करते ? फलत: उन्होंने पद्मावती को पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया ।
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पद्मावती की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा । वहीं एक कुटिया बनाकर वे दोनों सुखपूर्वक रहने लगे ।
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जगन्नाथ जी का स्मरण और नाम ही उन दोनों का प्रतिक्षण कार्य था । पद्मावती भी चिंतनशील युवती थी । 
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शीघ्र ही वह जयदेव के हृदय में प्रेरणा बनकर अंकित हो गई और तब ‘गीत गोविंद’ का जन्म हुआ । 
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‘गीत गोविंद’ एक ऐसा कालजयी काव्य है, जिसमें समस्त रस एक साथ इस तरह मिश्रित किए गए जिन्हें भुला देना सरल नहीं है ।
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जयदेव के कवि हृदय में नवीन विचार भी आते रहते थे जिन पर वे पूर्ण चिंतन करते थे । जब उन्होंने ‘गीत गोविंद’ के नौ सर्ग लिख लिए और दसवां सर्ग लिख रहे थे तो उनके हृदय में राधा-कृष्ण से सम्बंधित एक नवीन विचार आया ।
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जब रासबिहारी भगवान कृष्ण अपना कोई अपराध क्षमा कराने के लिए राधिका जी से विनती करते हैं तो जयदेव ने उस विनय को एक अनोखे अदाज में विचार लिया । 
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‘देवपद पल्लव मुरारम’ अर्थात-हे राधे, तुम मेरा अपराध क्षमा करो और अपने चरण-कमलों को मेरे सिर पर रखो ।
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जयदेव के इस पद में राधा के प्रति कृष्ण की प्रेमोपासना छुपी थी परतु फिर जयदेव ने ही इस विचार को स्थगित किया । 
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उन्होंने सोचा कि जो कृष्ण जगत के पालक और परमगुरु हैं वह अपनी प्रेयसी के चरणों में गिरें यह उचित न होगा । अत: उन्होंने उस पद को वहीं छोड़ा और स्नान करने चल पड़े ।
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उनकी पत्नी पदमावती कुटिया में ही थीं । कुछ ही देर पश्चात जयदेव पुन: लौटे और अपनी लेखनी उठाई उस छंद को उसी प्रकार पूर्ण करके जैसा उन्होंने सोचा था फिर स्नान को लौट पड़े । 
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“आर्यपुत्र लगता है आपका वह छंद पूर्ण हो गया ।” पद्मावती ने कहा: “तभी आप स्नान मार्ग से ही लौट आए ।”
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जयदेव तीनों लोकों को मुग्ध कर देने वाली मुस्कराहट बिखेरकर वहा से चल दिए । पद्मावती उन्हें जाते हुए देखती रही और फिर अपने कार्य में जुटी ही थीं कि जयदेव स्नान करके लौटते दिखाई दिए । 
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“हे स्वामी यह क्या आश्चर्य है ।” पद्मावती ने कहा: “अभी कुछ क्षणों पूर्व ही तो आप छंद पूर्ति करके गए हैं । इतनी शीघ्र स्नान करके भी लौट आए ?”
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“क्या कह रही हो प्रिये !” जयदेव भी आश्चर्य में पड़ गए । उन्होंने अपनी लेखन पुस्तिका खोलकर देखी तो उनके विचार को एक सुंदर हस्तलेख में लिखा गया था । वह रासबिहारी का रास समझ गए । 
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“हे देवी !” वह पद्मावती से भाव विह्वल होकर बोले: “मैं आज धन्य हो गया कि तुम जैसी महाभाग और कृष्ण की उपासिका मुझे पत्नी रूप में मिली ।
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तुम साक्षात भगवान कृष्ण का दर्शन कर चुकीं जो स्वयं मुझ अभागे की दुविधा दूर करने आए थे ।” 
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पद्मावती आश्चर्यचकित भी थी और अति प्रसन्न भी । अब उन्हें उस त्रिलोक को मुग्ध करने वाली मुस्कान का रहस्य समझ आ गया था । वह स्वयं को धन्य समझने लगीं ।
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और इस तरह जयदेव का गीत गोविंद बारह सर्गों में पूर्ण हुआ । कुछ ही समय में गीतगोविंद अत्यंत लोकप्रिय और चर्चित हो गया । प्रत्येक भक्त के मुख से गीतगोविंद के छंद निकल रहे थे । 
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एक दिन पुरी का राजा सात्विक राम जब सायंकाल भगवान जगन्नाथ के दर्शनों को पहुंचा तो यह देखकर उसके क्रोध का पारावार न रहा कि भगवान का महीन जामा फटा हुआ है उसमें कांटे लगे हैं और भगवान के श्रीमुख पर धूल जमी हुई है ।
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उसने इसे मंदिर के पुजारी का अपराध समझ कर पुजारी को बुलाया । 
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“पुजारी जी आप यहां पूजा करते हैं या पाखंड ? भगवान जगन्नाथ की तरफ देखिए । इनका जामा फटा है कांटे लगे हैं धूल जमी है ।” सात्विक राम ने क्रोध से गरजकर कहा : “आप यहां किस लिए हैं ?”
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“महाराज अभी कुछ समय पूर्व तो सब कुशल था ।” 
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”आप झूठ भी बोल रहे हैं । कुछ ही समय में यह दशा । आपने तो अक्षम्य अपराध किया है जिसका दंड आपको अवश्य ही मिलना चाहिए ।” 
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पुजारी जी निर्दोष होने के कारण दुखी होने लगे ।
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“ठहरो राजन् !” तभी भगवान जगन्नाथ की मूर्ति के होंठों से स्वर निकला “इसमें इनका कोई दोष नहीं है । मेरी यह दशा तो स्वय मेरे कारण हुई है । 
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कुछ समय पूर्व ही तो पुजारी जी ने मुझे वस्त्र पहनाए और स्नान भी कराया था परतु तभी मुझे एक सुंदर मधुर स्वर सुनाई पड़ा तो मैं अपने-आपको न रोक सका । मैं स्वर के समीप पहुंचा तो एक बगीचे में एक बालिका एक छंद गा रही थी । 
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मैं उसी के पीछे-पीछे चलकर छंद सुनता रहा तो अवश्य ही कहीं झाडू में मेरे कपड़े उलझ गए होंगे । मुझे वह छंद अति मधुर लगे थे राजन् ।”
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“हे प्रभो, हे जगत के स्वामी, वह कौन से छंद हैं जो आपको इतने प्रिय हैं कि आप मंदिर छोड्कर झाड़ियों-बगीचों में पहुंच गए ?” राजा ने विनय की , “नाथ हमें भी बताइए ।” 
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‘धीर समीरे यमुना तीरे, वसति वने वनवारी ।’ “यह तो जयदेव जी के गीतगोविंद की अष्टपदी है ।” राजा को पुजारी जी ने बताया ।
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“पुजारी जी, अब मंदिर में नित्य गीतगोविंद का पाठ हुआ करेगा ।” राजा ने आदेश दिया और उस दिन से नित्य मंदिर में गीतगोविंद का पाठ होता है । 
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जयदेव पर जगन्नाथ जी का वात्सल्य ही अधिक था । एक बार शरद ऋतु में जयदेव जी अपनी कुटिया के छप्पर को बना रहे थे । पद्मावती नीचे खड़ी उन्हें फूस पकड़ा रही थीं । 
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काफी समय व्यतीत हो गया तो पद्मावती को भोजन बनाने की सुधि आई । पद्मावती रसोई में चली गईं । जयदेव अकेले कार्य करने लगे । परंतु वह ध्यानमग्न थे और कार्य में तल्लीन थे ।
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उनके परिश्रम पर राधामाधव भी पसीज गए और स्वय वहां आकर उन्हें फूस पकड़ाने लगे । जयदेव तो अपने इष्ट के ध्यान में इतने मग्न थे कि उन्हें आभास तक न हो सका कि अब पद्मावती के स्थान पर स्वयं जगत बिहारी उन्हें फूंस पकड़ा रहे हैं । 
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अंतत: काम समाप्त हुआ और वे नीचे उतरे । तब उन्होंने देखा कि वहां पद्मावती नहीं थीं । वहां तो कोई भी नहीं था । वह आश्चर्य में पड़े अंदर पहुंचे तो वहां पद्मावती को रसोई में भोजन तैयार करते देखा ।
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उनके हृदय में एक उत्कंठा जाग्रत हुई और वे राधामाधव की मूर्ति के समक्ष पहुंचे तो देखा कि रासबिहारी के हाथों में कालिख लगी थी । निश्चय हो गया कि उन्हें फूंस पकड़ाने वाले स्वयं राधामाधव थे ।
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यह प्रेम और आस्था का अनूठा उदाहरण था । जयदेव जी की कीर्ति दूर-दूर तक फैलने लगी थी । लोग उन्हें सच्चा प्रभु-पात्र कहने लगे थे । 
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जयदेव जी के हृदय के रोम-रोम में कृष्ण बस गए थे और अपनी इसी आस्था के बल पर उन्होंने अपनी कुटिया में राधामाधव का उत्सव करने का सकल्प किया और द्रव्य सग्रह करने के लिए पदयात्रा शुरू की ।
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वे जहां भी जाते लोगों की भीड़ लग जाती और सब अपनी श्रद्धानुसार उन्हें धन देते । 
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एक दिन जगंल में कुछ डाकुओं ने उन्हें घेर लिया और उनसे सारा धन छीनकर उन्हें कुएं में डाल दिया । दुष्ट डाकुओं ने उनके हाथ-पैर भी काट डाले थे ।
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जयदेव अंगविहीन होकर कुएं में पड़े ‘कृष्ण-कृष्ण’ का जाप कर रहे थे । न उन्हें पीड़ा का आभास था न मृत्यु का भय । 
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बांके बिहारी अपने भक्त से कैसे विमुख हो सकते थे ? जब भक्त कष्ट में होता है तो भगवान भी व्याकुल हो जाते हैं ! 
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उसी समय वहां से राजा की सवारी गुजरी जो उस वन में आखेट के लिए आया हुआ था ।
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राजा के किसी अनुचर ने कुए से आती कृष्ण-कृष्ण की ध्वनि सुनी और राजा को बताया । तत्काल राजा की आज्ञा से जयदेव को बाहर निकाला गया । 
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जयदेव पीड़ा की अधिकता से मूर्च्छित हो चुके थे । एक अनुचर ने उन्हें पहचान लिया और राजा को बताया कि वे भक्त शिरोमणि जयदेव हैं ।
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राजा उन्हें महल में लाया और उपचार कराया । जयदेव जी स्वस्थ हो गए और राजा से जाने की आज्ञा मांगी । परंतु राजा ने अनुनय-विनय करके उन्हें वहीं रहने को मना लिया और उन की पत्नी पद्मावती को भी वहीं बुला लिया।
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स्वयं रानी पद्मावती की सेवा में तत्पर हो गई । एक दिन रानी और पद्मावती में वार्तालाप हो रहा था । “मेरे भाई की मृत्यु के पश्चात मेरी भावज भी उन्हीं के साथ सती हुई थी ।” रानी ने कहा । 
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“प्रीति की यही रीति होती है ।” पद्मावती सहज भाव से बोली: “यही एक सुहागन का व्रत होता है और यही उसका मोक्ष ।”
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रानी ने पद्मावती की परीक्षा लेने का मन बनाया और एक दिन जयदेव को राजा के साथ बगीचे में भेज दिया और योजनानुसार एक दासी ने महल में आकर खबर दी ।
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“महारानी जी महात्मा जयदेव का स्वर्गवास हो गया ।” दासी ने कहा । रानी रोने लगी । पद्मावती भी वहीं थीं । वह सब समझ रही थीं परतु परीक्षा देना भी भक्त का कार्य है । अत: उन्होंने उसी क्षण अपने प्राण त्याग दिए । 
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रानी हतप्रभ रह गई और उसने राजा को सब वृत्तांत कहा । अपनी रानी के इस कृत्य से राजा को दुख ही नहीं हुआ बल्कि स्वयं को दोषी मानकर अपने जीवन का अंत करने लगा । 
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जयदेव जी ने यह समाचार सुना तो उन्होंने राजा को समझाया और अतत: गीतगोविंद की अष्टपदी का गान किया तो पद्मावती जीवित हो उठीं ।
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राजा सहित समस्त नर-नारी उस चमत्कार पर नतमस्तक हो गए । राजा के प्राणों की रक्षा हो चुकी थी अत: पद्मावती ने अपने पति की आज्ञा लेकर उसी क्षण पुन:स्वांस छोड़ दिया । 
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कुछ समय पश्चात जयदेव अपने गांव केंदुली आ गए । वृद्धावस्था और अंगविहीन होने पर भी वह प्रतिदिन 5 मील दूर गंगा स्नान करने जाते थे ।
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भगवान ने अपने भक्त पर असीम अनुकम्पा की और गगा मैया की पावन धारा जयदेव जी की कुटिया के समीप बहने लगी । यह धारा जयदेवी गंगा के नाम से प्रसिद्ध हुई । 
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जयदेव ने जीवन-मरण का नियम मानते हुए केंदुली में ही शरीर त्यागा और गोलोक को गए ।
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आज भी माघ की मकर संक्रांति को वहां विशाल मेला लगता है और हजारों वैष्णव श्रद्धालु जयदेवी गंगा में स्नान करते हुए गीतगोविंद का गान करते हैं । 
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भक्त शिरोमणि कृष्ण प्रेमी जयदेव मृत्योपरांत भी जनमानस की स्मृति में जीवित हैं ।
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(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))
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