शुक्रवार, 14 अप्रैल 2017

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卐 सत्यराम सा 卐
ज्यों जाणों त्यों राखियो, तुम सिर डाली राइ ।
दूजा को देखूं नहीं, दादू अनत न जाइ ॥ 
ज्यों तुम भावै त्यों खुसी, हम राजी उस बात ।
दादू के दिल सिदक सौं, भावै दिन को रात ॥ 
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साभार ~ डॉ. सुमीत

*“प्रपत्ति” ~ भारत-भागीरथी*

श्री महाभारत में काशी राज्य की एक कथा आती है. भारत कहती है कि वहाँ एक शिकारी रहता था. वह अपने बाण में भयानक विष लगाकर हिरणों का शिकार करने गया. हिरणों का झुण्ड भी दिखा पर लक्ष्य चूक गया और बाण एक वृक्ष को लगा. विष इतना तीव्र था कि तत्काल पूरा वृक्ष सूख गया, उसके पत्ते और फल सब झड गए.
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उस वृक्ष के खोंखले में एक तोता रहता था. वहाँ रहते-रहते उसे उस वृक्ष से ‘प्रेम’ हो गया था. उसने उस वृक्ष को नहीं छोड़ने का निश्चय किया. उसने कहीं आना-जाना छोड़ दिया. चारा चुगना छोड़ दिया. इस तरह वह भी वृक्ष के साथ सूखता चला गया.
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सुमीत के मन में एक पंक्ति आयी – ‘जीर्णशीर्ण का मोह मृत्यु का ही द्योतक है’. सूखे पेड़ के प्रति आसक्ति तोते को भी मृत्यु के मुँह तक ले जा रही है. बुद्धिमानी तो पेड़ को छोड़ने में ही है क्योंकि वहाँ अनेक हरे-भरे वृक्ष भी हैं. पर भारत कहती है कि यह तोते की आसक्ति नहीं ‘प्रेम’ है और तोता धर्मात्मा एवं कृतग्य है. भारत कहती है कि तोते की चेष्ठा ‘अलौकिक’ है. सच लोक में तो लोग बुद्धि से काम लेते हैं – जो किसी काम का नहीं रहता उसे छोड़ देते हैं पर तोते का कृत्य लौकिक नहीं है. 
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प्रेम और कृतज्ञता अलौकिक गुण हैं. प्रेम कृतज्ञता लाता है और आसक्ति कृतघ्नता. एक बात धीमे से सुमीत और कहे – कविता की पंक्ति ने मोह को मृत्यु से जोड़ा है, तो पूज्य मोरारी बापू ने प्रेम को मृत्यु से, वहाँ महाभारत का भी स्मरण किया और कहा महाभारत की मृत्यु सुन्दर है(मानस महाकाल, उज्जैन) और वही मुझे यहाँ दिख रहा. जो प्रेम से जुड़ जाए वह सुन्दर है. बहुत ही सूक्ष्म अंतर है. इसपर विचार ‘ध्यान’ की गहराईयों में और आध्यात्मिक उचाईयों पर ले जा सकता है.
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यह अलौकिक कृत्य तोते के शरीर को भले क्षीण करता है पर उसकी आत्मा को दिव्य बना देता है. इस तप के कारण देवराज इंद्र का ध्यान तोते की तरफ गया और वह ब्राह्मण का रूप धर कर तोते के पास आते हैं. तोते की अलौकिकता कि वह देवराज को पहचान लेता है जिससे देवराज बहुत प्रभावित होते हैं और मन से उसका आदर करते हैं.
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इंद्र के पूछने पर कि वह वृक्ष को क्यों नहीं छोड़ता, तोता कहता है कि ‘मैंने यहीं जन्म लिया, यहीं अच्छे-अच्छे गुण सीखे, यहीं मुझे आश्रय मिला, यहीं मुझे सुरक्षा मिली. जब यह समर्थ था तब मैंने इसी से आश्रय पाया तो अब इसे कैसे छोड़ दूँ.’ यही कृतज्ञता है – जो जीव को दिव्य बना देती है.
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आज लोग अपने बूढ़े माँ-बाप को छोड़ने को तैयार हैं, बूढ़े और शक्तिहीन रिश्तों को छोड़ने को तैयार हैं – यह लौकिक कृत्य हैं, यह कभी किसी को दिव्यता नहीं देंगे. और सुमीत कहे कि लोग सम्पन्नता में ईश्वर को भजते हैं और विपन्नता आते ही छोड़ देते हैं – वह कृतघ्न हैं. वह किस चमत्कार की आशा रखते हैं. चमत्कार तो कृतज्ञता से घटता है. प्रभु के प्रति, माँ-बाप के प्रति, रिश्तों के प्रति कृतज्ञ रहिये तो चमत्कार घटेगा ही. *कृतज्ञता बहुत बड़ा तप है, धैर्य उसका प्राण है*.
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और यहाँ भी चमत्कार घटा. इंद्र आये तो खाली तो जाते नहीं. तोते की कृतज्ञता ने उन्हें इतना प्रभावित किया कि उन्होंने वर मांगने को कहा. बस तोते ने माँगा कि आप वृक्ष को हरा-भरा कर दीजिए. इंद्र ने वृक्ष को अमृत से सींच कर हरा-भरा कर दिया. भारत कहती है कि तोते की ‘दृढ़ भक्ति’ वृक्ष को श्री संपन्न बना देती है. ध्यान दीजिए, *‘कृतज्ञता’ भक्ति है*. कृतज्ञता अपना भी कल्याण करती है और अपने द्वारा अपनों का भी.
~ डॉ. सुमीत 
“UMA – Ubiquitous Mystic Azure”
Lucknow, India.

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