शुक्रवार, 14 अप्रैल 2017

= १८२ =

卐 सत्यराम सा 卐
श्रम न आवै जीव को, अनकिया सब होइ ।
दादू मारग मिहर का, बिरला बूझै कोइ ॥ 
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साभार ~ Rp Tripathi

****मानवीय-कार्यों का उद्देश्य ? :: एक संक्षिप्त अवलोकन****

सम्मानित मित्रो :
यदि हम सिर्फ अपने ही नहीं ; सृष्टि में अनादि काल से पैदा हो रहे सम्पूर्ण मानवों के क्रिया-कलापों के उदेश्यों का अध्ययन करें ? तो पायेंगे कि -- संसार में अनादिकाल से मानव अपने कार्यों से ; धन-संपत्ति-पद-प्रतिष्ठा ; यहाँ तक की भगवान का दर्जा आदि प्राप्त करने का ; जो अथक प्रयास कर रहे हैं ; उन सभी का मूल उद्वेश्य है :--

"जीवन से परतंत्रता को हटाना या ; जीवन में स्वतंत्रता को प्राप्त करना !!" क्योंकि यह सभी का अनुभव है कि :-- "पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं" .. और .. "परवश जीव स्ववश भगवंता" .... !! 

और इस तरह सृष्टि के मानवों को दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है :--

१. एक वह जिन्होंने स्वतन्त्र-सत्ता की प्राप्ति के लिए ; भगवान बनने की कोशिश की ; या बनने का प्रयास कर रहे हैं !! और .... 
२. दूसरे वह जिन्होंने भक्त के रूप में स्वयं की स्वतंत्रता को ; उसी तरह भगवान की स्वतंत्रता को समर्पित कर दिया ; या समर्पित करने का प्रयास कर रहे हैं ; जैसे बूँद समुद्र में विलय होने पर अपनी स्वतन्त्र सत्ता को खो देती है !! 

और इतिहास के पन्नों से हमें यह भी ज्ञात होता है कि :--
जिन्होंने भगवान बनने की कोशिश की ; वह भगवान तो नहीं बन पाये परन्तु शैतान(राक्षस) अवश्य बन गए !! और अंत में दुःखद परिणाम को प्राप्त हुए !! और जिन्होंने भक्त बनने का प्रयास किया ; वह अवश्य ही स्वयं और अन्य के लिए सुखकारी हुए !! 

अतः सम्मानित मित्रो हमें भगवान नहीं ; भक्त बनने का प्रयास करना चाहिए !! क्योंकि भक्त जानता है कि :--

"प्रारब्ध पहले रचा, पीछे रचा शरीर ! 
तुलसी चिन्ता क्यों करे, भज ले श्री रघुबीर !!" 

उपरोक्त से सहमत हैं ना सम्मानित मित्रो ? 

********ॐ कृष्णम् वन्दे जगत गुरुम********

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