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॥ दादूराम सत्यराम ॥
*श्री दादू चरितामृत(भाग-२)*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*= विन्दु ९६ =*
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*= गति भेद से समन्वय =*
गति तीन प्रकार की होती है - देवयान(देवगति). पितृयान(पितृगति) और अधोगति । जो विद्या समुच्चित कर्म करते हैं अथवा सगुण ब्रह्म की उपासना करते हैं, वे देवयान मार्ग से जाते हैं । जो केवल अग्निहोत्रादि तथा इष्ट आपूर्त और दत्त करते हैं, वे पितृयान मार्ग से जाते हैं, इस मार्ग को धूम्रयान मार्ग भी कहते हैं । जो शास्त्र निषिद्ध काम करते हैं, उनकी अधोगति होती है, जैसे कृमि कीटादिक । चौथी गति ब्रह्म ज्ञानियों की होती है ।
“न तस्य प्राणा व्युत्क्रामन्ति, इहैव समवलीयन्ते ।”
आदि की तीन गतियां साकार की होने से साकार की तीन मात्रायें हैं और अन्त की अगति निराकार, निर्गुण चौथी मात्रा रूप है ।
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*= लोक भेद से समन्वय =*
देवलोक, पितृलोक, मनुष्यलोक और आत्मलोक, ये चार लोक हैं । इनमें आदि के तीन लोक विनाशी हैं । उन तीन लोकों से अतीत चतुर्थ आत्मलोक है । आदि के तीन लोक विद्या विषयक होने से साकार हैं । यही साकार की तीन मात्रायें हैं । आत्मलोक निराकार होने से चतुर्थ मात्रा है ।
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*= लय भेद से समन्वय =*
नित्य, प्राक्रतिक, नैमित्तिक और आत्यन्तिक भेद से लय चार प्रकार का है । सुषुप्ति नित्य प्रलय है । मन सहित सम्पूर्ण इन्द्रियां सुषुप्ति काल में प्राण में लीन हो जाती हैं । कार्य ब्रह्म का नाश होने से तत्प्रयुक्त सकल कार्यों के नाश को प्राकृत प्रलय कहते हैं । इस प्रलय में ब्रह्माण्डान्तर्वर्ती सकल जंगम और स्थावर भूतों का प्रकृति में लय होता है । अतः यह प्राकृत प्रलय कहलाता है । हजार चतुर्युग का ब्रह्मा का एक दिन होता है और हजार चतुर्युग की ब्रह्मा की रात्रि होती है । कार्य ब्रह्म का रात दिन समाप्त होने पर त्रैलोक्य का प्रलय होता है, उसको नैमित्तिक प्रलय कहते हैं । ब्रह्म साक्षात्कार होने से एकान्ततः संसार रूप बन्धन से सदा के लिये जो मुक्ति होती है, वह आत्यान्तिक प्रलय है । इसी को मोक्ष कहते हैं । अन्य प्रलयों में बीज रूप(प्रकृति रूप) से संसार मौजूद रहता है किन्तु इसमें सर्वथा नाश हो जाता है । इनमें आदि के तीन लयों में बीज रूप शेष रहता है, अतः तीनों साकार हैं । आत्यान्तिक लय निःशेष होने से निराकार है ।
(क्रमशः)
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