बुधवार, 31 मई 2017

= ७३ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*ज्यों रसिया रस पीवतां, आपा भूलै और ।*
*यों दादू रह गया एक रस, पीवत पीवत ठौर ॥ २७१ ॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! अब स्वयं परमेश्वर अपने भक्तों को उपदेश करते हैं कि जैसे रस का रसिया रस का आस्वादन अपनी ही प्रसन्नता के लिये लेता है, किन्तु रस पीवतां कहिए, आपा और परायापन के भाव को भूल जाते हैं । इसी प्रकार भक्ति - रस का आस्वादन लेते हुए भक्तजन माया व ब्रह्मभाव को भूलकर भक्तिरस में ही अभेद हो रहे है । अथवा हे मुमुक्षुओं ! रसिया की भांति परमेश्वर में अभेद होइये, तो शरीर आदिक का अध्यास भूलोगे ॥ २७१ ॥ 
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*जहँ सेवक तहँ साहिब बैठा, सेवक सेवा मांहि ।*
*दादू सांई सब करै, कोई जानै नांहि ॥ २७२ ॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जब भक्तजन परमेश्वर की भक्ति में एकरस होते हैं, तो भक्तों के हृदय में ही प्रकाशमान होकर अपने भक्तों की योग, क्षेम आदिक सब सेवायें परमेश्वर आप स्वयं करते हैं, किन्तु इस बात को भक्तों के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं जान पाता ॥ २७२ ॥ 
सांभर नूँता सात को, भोगे दादू होइ । 
एक दिवालै भाकसी, दादू देखे दोइ ॥ 
"जैमल" जप हरि नाम को, हरिजी जैमल होइ । 
सैन्य हनी रणभूमि में, मर्म न जान्यो कोइ ॥ 
दृष्टान्त = सांभर झील में जब ब्रह्मऋषि विराजते थे, एक रोज एक साहूकार ने महाराज को घर ले जाने का निमंत्रण दिया । इस प्रकार उसी दिन सात निमंत्रण आए । महाराज ने विचार किया कि प्रभु भेज रहे हैं, आप ही स्वयं भक्तों के यहाँ पधारेंगे । प्रभु की प्रेरणा से पहले निमंत्रण आया, उसके साथ ब्रह्मऋषि पधार गए । फिर बाद में ब्रह्मऋषि का रूप बनाकर भगवान स्वयं झील में बैठ गए और दूसरा आया, तो उसके साथ चले गए । इस प्रकार सात निमन्त्रण भगवान ने दादू जी के रूप में जीमे । तब भक्तों को जानकारी हुई कि आज महाराज ने अपने सात रूप बनाए और सातों भक्तों की इच्छा पूर्ति की, परन्तु भगवान ने ब्रह्मऋषि को प्रगट करने के लिए लीला रची थी ।
दूसरा परचा = सांभर के हाकिम ने मजहबी लोगों के कहने पर दादूदयाल ब्रह्मऋषि को बुलवाकर कारागृह में बन्द कर दिया । परमेश्वर दादूदयाल का रूप बनाकर उसी देवालय में बैठ गए और पद गाने लगे । जब हाकिम को पता चला कि वह कारागृह में भी और कुटी में भी बैठे हैं, तब कारागृह से मुक्त करके चरणों में नत - मस्तक होकर प्रणाम किया और चरणों की धूल मस्तक में रमा कर महाराज के ज्ञान को ग्रहण करके कृत - कृत्य हो गया ।
तीसरा परचा = जैमल जी चौहान बौंली ग्राम के जागीरदार थे । ये दादूजी के प्रधान ५२ शिष्यों में माने जाते हैं । बौंली ग्राम को प्राचीन समय में "खालड़" और आजकल सबलपुर कहते हैं । जयमलजी चौहान अपना अधिकांश समय भगवद् भजन में लगाते थे । एक दिन प्रातःकाल जब वे भगवद्भक्ति में तल्लीन थे, एक द्वेषी ठाकुर ने दल - बल के साथ उनके ठिकाने पर चढ़ाई कर दी । तब अपने परमभक्त पर आई विपत्ति को टालने के लिये भगवान् ने सैन्य दल - बल सहित जयमल का रूप धारण करके शत्रु से जा भिड़े और शत्रु - दल को मार भगाया । जब विजयी सैन्य - दल ने ग्राम में आकर परमवीर जयमलजी द्वारा रणक्षेत्र में प्रदर्शित अद्भुत शूरवीरता का गुणगान लोगों को सुनाया तो लोग आश्चर्यान्वित होकर कहने लगे कि राव साहब जैमलजी तो भोर से ही पूजन - पाठ व हरिनाम स्मरण में व्यस्त हैं, बाहर निकले ही नहीं, देख लो ! परन्तु सभी सैनिक दावे के साथ कह रहे थे कि वे जोश - खरोश के साथ युद्धक्षेत्र में हमारा नेतृत्व कर रहे थे । जब सबने महल में जाकर जयमलजी को नाम - स्मरण में ध्यान - मग्न देखा तो उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया कि भक्त - वत्सल भगवान् ने ही उनका दूसरा रूप धारण कर लिया था । इससे उनकी प्रसिद्धि दूर - दूर तक फैल गयी थी ।
ईर्ष्या = एक दुष्ट भेषधारी ने उन्हें मारने के लिये उन पर मारण - मन्त्र(मूठ) का प्रयोग भी किया था, जिसका जयमलजी चौहान ने तत्काल "रामरक्षा मन्त्र" की रचना करके मूठ को वापस लौटा दिया था । यह राम रक्षा - मन्त्र अत्यन्त प्रभावी है, जिसका चमत्कार देखा जा सकता है । साधु लोग इसका झाड़ा देकर भूतबाधा, रोग कष्ट आदि अनेक व्याधियों से व्यथित व्यक्तियों का कष्ट - निवारण करते देखे जाते हैं ।
*(श्रीदादूवाणी ~ परिचय का अंग)*

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