रविवार, 7 मई 2017

= २८ =

卐 सत्यराम सा 卐
इन्द्री के आधीन मन, जीव जंत सब जाचै ।
तिणे तिणे के आगे दादू, तिहुं लोक फिर नाचै ॥
इंद्री अपने वश करै, सो काहे जाचन जाइ ।
दादू सुस्थिर आत्मा, आसन बैसै आइ ॥
==========================

॥ श्री गुरुभ्यो नमः ॥
*:पृथ्वी को पृथ्वी क्योँ कहते है ?":*
नारायण । पुराणोँ मेँ एक विचित्र कथा आती है कि "पृथ्वी"को पृथ्वी क्योँ कहा जाता है और इसकी उत्पत्ति कैसे हुए । राजा पृथु की यह प्रथम पत्नी बनी, इसलिये इसका नाम पृथ्वी है । श्री रामचरित मानसकार श्री तुलसी दास जी ने भी वन्दना के क्रम मेँ गाया है "वन्दौ प्रथम पृथु के चरणा"। पृथु की जो हो, वह पृथ्वी । "अंग"नाम के राजा की "सुनीथा"नाम की पत्नी थी । उनके एक पुत्र हुआ जिसका नाम "वेन"था । 
.
राजा वेन बड़ा ही उग्र, अधार्मिक, महान क्रोधी और अत्यन्त विरुद्ध आचरण करने वाला था । यह उसका स्वभाव था । इस संसार मेँ दो तरह के लोग होते हैँ - एक, जो किसी कारण से बुरे होते है और दूसरे, जो स्वभाव से बुरे होते है । नारायण, जहाँ कारण से बुराई होती है, कारण के समाप्त होने पर बुराई हट जाती है और जहाँ बुराई स्वाभाव से होती वह नहीं हटती । नारायण, भगवान ने भी गीता मेँ हथियार ड़ाल दिये ! स्वयं श्री नारायण हरि सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान परब्रह्म परमात्मा श्री कृष्ण स्वयं कहते हैँ -
"प्रकृतिँ यान्ति भूतानी निग्रहः कि करिष्यति"(श्री गीता ३ - ३३) अपनी - अपनी जैसी प्रकृति अर्थात् स्वभाव होता है, वैसे ही लोग प्रवृति करते हैँ । नारायण, अगला प्रश्न होता है इससे बचने का क्या कोई उपाय नहीं है ? भगवान ने उपाय तो बताया लेकिन प्रकृति को बदलने का उपाय नहीं बताया । 
"प्रकृतेरन्यथाभावो न कथंचिद् भविष्यति" भगवान श्री आदिशंकराचार्य जी के श्री दादागुरु "भगवान श्री गौडपादाचार्य जी" कहते हैँ कि प्रकृति का अन्यथाभाव नहीँ हो सकता । भगवान ने उपाय बताया कि प्रकृति के अनुसार तो करोगे लेकिन "राग - द्वेष करना न करना तुम्हारे हाथ मेँ है ।"
"तयोर्न वशमगच्छेत् तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ"(श्री गीता, 3 - 34)
.
नारायण, वेन स्वभाव से अधार्मिक था, उसे लोगोँ के तड़पाने मेँ सुख होता था । किस कारण से वह कष्ट देता था ऐसा हमारे पुराणकार ने नहीं कहा है । वह विना कारण ही लोगोँ को कष्ट दे कर खुश होता था । वह प्राचीन काल था । लोगोँ मेँ धर्म की भावना अधिक थी । इसलिये उसने चाहे जितना कष्ट दिया,लोग समझते थे कि "यह अपना राजा है, इसकी बात माननी चाहिये ।"
.
सभ्य और असभ्य मेँ यह बड़ा भेद होता है कि जब सभ्य समाज का असभ्य समाज के साथ संघर्ष पड़े तब असभ्य हमेशा सभ्य को दबा लेता है । यह नियम है, क्योँकि सभ्यता होती ही है इस बात की है कि दूसरे के भाव को समझना चाहिये । आप चाहेँगे कि हम कुछ इनकी बात को समझेँ लेकिन उसे तो समझना ही नहीँ, वह असभ्य ही इस बात का है । प्राचीन काल मेँ लोग सभ्य थे । बड़ी से बड़ी विपत्ति मेँ विचार करते थे कि किसी तरह से सभ्यता को बचा लिया जाये । वेन राजा ने अनेक अत्याचार किये । 
.
अन्त मेँ हमारे ऋषि उसे समझाने के लिये गये कि "अत्याचार की पराकाष्ठा हो गई है ।" सर्वथा अधर्म का आचरण करके केवल अपने को ही तू अपने को समझने लग गया है । इस प्रवृति को तू छोड़ दे अन्यथा कल्याण नहीं होगा । राजा वेन हँसने लगा । वह कहने लगा, "मैँ नहीँ, तुम सब मूर्ख हो ।" आप यह न समझे कि आज कल के राज्य वाले ऐसा कहते हैँ । यहाँ प्राचीन काल की, वेन के समय की हम बात कर रहे हैँ । वेन ने कहा, "तुम सब अभी बच्चे हो, तुम्हेँ समझ नहीं, तुम मुर्ख हो । तुम लोग अर्धम को धर्म मानते हो । देखो, मैँ तुम लोगोँ को खाने - पीने को देता हूँ, तुम्हारा सब इन्तजान मैँ करता हूँ । इस प्रकार मैँ तुम सबका उद्धार करता हूँ ।" फिर उसने ऋषियोँ को दृष्टान्त दिया । अधार्मिक लोग कैसी - कैसी उपमाये देँगे नारायण, यह याद रखेँगे ।
वेन ने ऋषियोँ से कहा "पति कमाकर लाये और पत्नी को खाने को दे लेकिन पत्नी बजाय इसके कि अपने पति की सेवा करे, किसी जार की सेवा करती है तो कितनी बुरी बात है । ठीक यही हाल तुम लोगोँ का है । मैँ तुम लोगोँ का सब इन्तजाम करता हूँ, और तुम देवता को पूजते हो ! यह ईश्वर नाम की कौन - सी चीज आ गई ? वह क्या तुम लोगोँ को कुछ देता है ? चाहे राजा हो, चाहे घर का पति या अच्छा पिता हो, घूम - फिरकर उसे वेन की बात बड़ी पसन्द आती है । तुम किन - किन की उपासना करते हो ? तुम लोगोँ मेँ कोई विष्णु की, कोई ब्रह्मा की, कोई गिरीश शंकर की तो कोई इन्द्र, वायु, अग्नि, यम, सूर्य उपासना करता है । ये भिन्न - भिन्न उपासनायें करता है । लेकिन ये सब तो मेरे ही अन्दर है । 
.
दुष्ट भी शास्त्रोँ मेँ से अपना मतलब की बात निकाल लेते हैँ । ये सारे देवता राजा के शरीर मेँ रहते हैँ । विष्णु तुम्हारी रक्षा नहीं करता बल्कि मैँ फौज आदि के द्वारा तुम्हारी रक्षा करता हूँ । तुम कहते हो ब्रह्मा पदार्थो का निर्माण करता है जबकि मैँ ही उद्योग इत्यादि लगवाकर निर्माण करवाता हूँ । तुम कहते हो जल की व्यवस्था इन्द्र करवाता है, पर मैँ नहरेँ इत्यादि खुदवाकर व्यवस्था करवाता हूँ । इसलिये ये सारे देवता तो मेरे अन्दर है । जैसे यह राजा वैसे ही घर का राजा भी समझ लेना । वर और शाप देने मेँ भी मैँ समर्थ हूँ । चाहे जितनी धनराशि दे दूँ या रक्षकोँ द्वारा पकड़वा दूँ । मेरे मेँ ही सारी सामर्थ्य है । ईश्वर मेँ क्या है ?"
.
नारायण, वेन कहता है, ईश्वर मेँ क्या है ? इस लिये आप लोगोँ को जो कुछ भी भेँट देनी हो, मुझे ही लाकर दो । मुझ से श्रेष्ठ और कोई नहीं है । सबसे पहले पदार्थ का अधिकारी राजा है, इसलिये अधिकार मेरा है । यह जो आप लोग कहते हो कि एक यज्ञ देवता, यज्ञ - पुरुष होता है, वह कौन है ? जिसमेँ तुम लोगोँ ने बड़ी भक्ति लगा रखी है, उस ईश्वरादि को छोड़ो । जैसी बुरी स्त्री जारोँ के तरफ जाती है ऐसे ही तुम लोग देवताओँ की तरफ जाते हो । असली देवता मैँ हूँ ।
.
नारायण, इसी "वेन संस्कृति से प्रभावित लोग कहते हैँ कि भाखड़ा, नांगल आदि ही असली मन्दिर हैँ । जगह - जगह देव - मूर्तियोँ की स्थापना न करवाकर अपनी मूर्तियाँ स्थापित करवाते हैँ । "देव - मूर्ति की जरूरत नहीं हमारे बाप - दादा की मूर्ति बननी चाहिये । वे बड़े नेता थे ।" नारायण, इस संस्कृति का आद्याचार्य "वेन" है । शहरोँ का नाम देवताओँ पर नहीँ हमारे उपर रखो, मुहल्ले का नाम भी देवताओँ के नाम पर नहीँ, वे सब फालतू हैँ, हमारे नामोँ पर ही रखनी चाहिये । वेन की संस्कृति राज्य को ही सब कुछ मानने वाली है । ब्रह्माण्ड का जो अधिष्ठाता देव, उसकी ओर दृष्टि नहीँ । उससे उत्पन्न होने वाला जीव, जिसकी अपनी कोई सत्ता नहीँ, वह अपने को ही पूज्य और केन्द्र मानता है । नारायण, हेगल, मार्क्स आदि विचारक जो राज्य को सर्वोपरि मानने वाले हैँ वे सब इस "वेन" के शिष्य हैँ । वे कहते हैँ कि यह राज्य ही सब कुछ है इससे परे और कुछ नहीं है ।
.
नारायण, जब वेन ने यह कहा तब ऋषियोँ को बर्दास्त नहीं हुआ । 
"हरि निन्दा सुनहीं जो काना । 
लगहि पाप गोघात समाना ॥" 
ऋषियोँ ने सोँचा अब यह हद से बाहर चला गया है । ऋषियोँ ने हुंकार की । हुकार करते ही वेन मर गया । पापी के अन्दर अपना जोर कुछ नहीं होता । जब तक सभ्य पुरुष अपने तेज को सभ्यता के कारण प्रकट नहीं करता, तभी तक उसका जोर चलता है, उसके बाद नहीँ । ऋषियोँ के हुँकार के बाद वेन खत्म हो गया । सुनिथा ने कुछ दिन तक वेन के शरीर को रखा । लेकिन केवल राजा का शरीर रखने से क्या होगा ! नारायण, तरह - तरह के उत्पात बढ़ने लगे । फिर उसने ऋषियोँ को आग्रह करके बुलाया कि "बड़ी खराब स्थिति हो गई है, कुछ ढ़ंग करो ।" 
.
ऋषियोँ ने वेन का मंथन किया । सबसे पहले उस मंथन मेँ से एक अत्यन्त कृष्ण रंग का पापी पुरुष निकला । उससे कहा कि तुम एक तरफ बैठ जाओ । उसका नाम "निषाद" पड़ा । उसी से उत्पन्न सारी संतती निषाद कही जाती है । जब और मंथन चला तो दक्षिण भाग से "पृथु" और वाम भाग से "अर्ची" निकले, नारायण, एक पुरुष और एक स्त्री निकले । पृथु मेँ सुन्दर लक्षण देखकर सब लोगोँ ने बड़ी स्तुति की । उसके बाद पृथु का राज्याभिषेक कर दिया गया । पृथु ने देखा जमीन मेँ खेती नहीं हो रही है । जितना बीज ड़ाला जाय, खत्म हो जाता है । उन्होँने विचार किया कि यह समस्या तो बड़ी कठिन है । जब भूमी ही अन्न नहीं देगी तब कब तक काम चलेगा । नारायण, भूमी को रास्ते पर लाने के लिये पृथु ने धनुष - बाण उठाया । भूमी ने कहा कि "मुझे मारने से कुछ लाभ नहीं होगा । बात यह है कि इतने दीर्धकाल तक पापोँ के फल से मेरी उर्वरा शक्ति नष्ट हो गयी है । इसलिये इस शक्ति को फिर से लाओ तो काम हो । राजा पृथु ने पापोँ के निवृति के लिये अश्वमेध यज्ञ करने प्रारम्भ किये । जैसे - जैसे अश्वमेध यज्ञ होता गया, वैसे - वैसे माने पृथ्वी से दूध निकलता गया अर्थात् अन्न की उत्पत्ति बढ़ती चली गई ।
.
लोगोँ ने जब इस प्रकार अन्न बढ़ते देखा तो बड़े प्रसन्न हुए और जाकर राजा पृथु की तारीफ करने लगे । नारायण, अब यहा "वेन" और "पृथु" मेँ अन्तर देखेँ : जब पृथु की प्रजा ने तारीफ की कि आपके आने से हम सुखी हो गये, हमेँ खाने - पीने को मिला, आपकी जय हो, आप धन्य हैँ, तब राजा पृथु ने कहा "आप लोग यह क्या कह रहे हैँ ! उस पारब्रह्म परमेश्वर का गुणानुवाद करना उचित है, उसी के लिये यह जीभ दी गई है । इसके द्वारा मेरी स्तुति क्योँ आप सब कर रहे हैँ । मैँ तो अत्यन्त घृणा का पात्र हूँ । इस देह के अन्दर बँधा परिच्छिन्न जीव, उसकी स्तुति नहीँ बनती । उपाधि वाला शरीर तो महान घृणित है ही । गन्दगी के अलाबा उसमेँ कुछ नहीं है । चाहे कितना बढ़िया इतर - फुलेल लगाओ । नारायण, सभ्योँ का लक्षण है जुगुप्सित की स्तुति नहीं करते ।" कहा वेन अपनी स्तुति कर रहा था और कहा पृथु अपनी स्तुति को हेय बताकर परमेश्वर की स्तुति को ही कर्तव्य कह रहा है ! लोगो ने कहा आपके अन्दर आत्मा है, उसकी ही स्तुती कर लेने दो, पृथु ने कहा कि वह भी नहीं । "जिसे आप मन - रूप, जीवरूप पुर्यष्टक वाला शरीर समझ रहे हैँ, वह भी तो अविद्या काम और कर्म से ही आरब्द्ध होता है । अच्छे से अच्छे महापुरुष का सुक्ष्म शरीर अन्तःकरण, अविद्या, काम और कर्म से प्रसूत है । उसकी क्या स्तूती करेँगे ? जो जगा हुआ आदमी है, वह इसमेँ कभी अनुरक्ति नहीं करता ।
.
नारायण धीरे - धीरे पृथु के राज्य की सारी व्यवस्था ठीक हो गई । व्यवस्था ठीक होने के बाद राजा पूथु ने विचार किया कि "अब मेरा युवावस्था का राज्यकाल समाप्त हो गया, मुझे अब संन्यास ले लेना चाहिये ।" उन्होनेँ सारी प्रजा को बुलाया और कहा कि "आप लोगोँ से मैँ एक प्रार्थना करता हूँ कि अब मैँ इस राज्य को नहीं चलाऊँगा । इसलिये मैँ अपने पुत्र को राज्य दूँगा और मैँ संसार संसार की किसी चिज को नहीं चाह रहा हूँ । भगवान् से प्रार्थना करते हुये पृथु ने कहा, मैँ किसी भी ऐसे साधन की अभिलाषा नहीं करता जहाँ आपके चरणकमल का "आसव" नहीँ है । आपके चरणोँ के स्मरण करने मात्र से मेरे हृदय मेँ मादकता आ जाती है । बस उसे छोड़कर मुझे और कुछ नहीं चाहिये। संसार मेँ सब देख लिया । जितने बुद्धिमान हैँ, वे ऐसा ही करते हैँ । माया और माया से उत्पन्न होने वाले सत्व, रज और तम तीन गुण और उन तीन गुणोँ से उत्पन्न होने वाले संसाररूप विभ्रम को छोड़ कर आपका ही चिन्तन करते हैँ । नारायण, यह प्रार्थना करते हुये पृथु ने भगवान से कहा कि, "मुझे और कुछ भी न चाहिये", मैँ ऐसा कोई स्थान नहीं चाहता जिसमेँ आपके चरणकमलोँ के "आसव" का पान न कर पाऊँ । नारायण, प्रजाजनोँ के लिये अपने पुत्र को राजा बनाकर अंत मेँ पृथु चले गये ।
.
नारायण, यहाँ पृथिवी के नाम का कारण बताया । इसके द्वारा समाज- रचना को पुराणकार ने बड़े अच्छे रूप मेँ हम सबके सामने रखा है । भगवन्, समाज की दो दृष्टियाँ हैँ - एक "वेन" की और दूसरी "पृथु" की । वेन अंग - "सुनीथा" से पैदा हुआ । "अंग" टुकड़े को कहते है । जब इस विश्व मेँ हमारी "अंग - दृष्टि" अर्थात् भेद दृष्टि होती है, तब हमेँ "असुनिथा" मिलती है । भगवन्, ध्यान रखेँगे - "सुनिथा" मेँ 'अकार' का लोप है । जो प्राणोँ मेँ रमे हैँ उन्हे "सुनिथा" समझनी चाहिये । नारायण, आजकल सबेरे से शाम तक "गरीबी हटाओ" का नारा सुनते हैँ । कौन - सी गरीबी हटाने की बात है ? "अनैतिकता" की गरीबी हटाने की बात नहीँ । "शराब" की छूट दो, "तलाक - बिल" पास करो, सिनेमाओँ को और ज्यादा लाईसेन्स दो, समलैँगिकता को बढ़ावा दो, "एक वर्ग विषेश को देश की योजनाओ मे प्रथम अधिकार दो"।
.
यह सब नैतिकता की गरीबी बढ़ाओ । प्राणाराम की गरीबी हटाओ । नारायण, यदि इस अन्तःकरण की गरीबी को बढ़ाते रहेँगे तो सारा संसार भी मिल जायेगा फिर भी वह गरीबी हटने वाली नहीं है । नाराण, गरीबी कहाँ रहती है ? महाभारत मेँ बताया है कि सारी पृथ्वी का धन - धान्य, स्त्री, पशु भी अगर एक व्यक्ति को मिल जाये तो भी संतोष होने वाला नहीं है । नारायण, भेद - दृष्टि के द्वारा प्राणारामता के द्वारा गरीबी हटाना संभव नहीँ । वेन समझता है कि "मैँ ही जो कुछ हूँ, सो हूँ ।" यह संसार, यह राज्य और मैँ - बस यही सब कुछ है, इससे परे कुछ नहीं । सब मेरी उपासना करेँ । नारायण, इस वेन - निति का विरोध करने के लिये ऋषियोँ ने "पृथु" को लाया । नारायण "पृथु" का अर्थ "विस्तृत" होता है । 
.
वेन जितना संकुचित दृष्टि बाला था, उतने ही पृथु विशाल और उदार दृष्टि वाले थे । उस पृथु की पत्नी का नाम "अर्ची" था । अर्ची अर्थात् प्रकाश(ज्ञानाग्नि) है । उसके द्वारा जो उन्नति होती है वही वास्तविक उन्नति है । यहाँ पुराणकार, वेदज्ञ जिस विराड् रूपता का प्रतिपादन कर रहे हैँ वह इसी दृष्टि का प्रतिपादन कर रहे है कि जब ब्रह्माण्ड का अधिकारी पितामह ब्रह्मा, विराट् पुरुष भी उस शुद्ध "चिन्मात्र से उत्पन्न हुआ हैँ, उसे भी अभिमान करना व्यर्थ है कि "मैँ इसका शासक हूँ" तब अन्य किसी का ऐसा अभिमान निरर्थक है । 
.
पृथु की दृष्टि अगर हम अपने मेँ धारण करेँगे तो राष्ट्र सवल होगा, सुखी होगा । वेन दृष्टि से राष्ट्र का तेज उर्वराशक्ति समाप्त हो जायेगी । नारायण, "वृहदारण्यक उपनिषद्" मेँ बताया गया है कि दो आँख, दो कान, दो नाक और मुख यही सप्त ऋषि हैँ । यानी वह व्यक्ति अपनी इन्द्रियोँ के जलाने के द्वारा जलता है रहता है । वह अपने को कितना बड़ा बनाने का प्रयत्न करे लेकिन खुद ही जलता रहता है, खुद ही उसे शान्ति नहीं मिलती । ऋषि रूपी इन्द्रियाँ उसे जलाती रहती है । चित्त मेँ शान्ति का आविर्भाव उसमेँ कभी नहीं होता । विराट् पुरुष को उस परमात्मा से उत्पन्न बताकर उसी से उत्पन्न और उसी मे आश्रित होने की दृष्टि से ही मनुष्य समाज रचना को ठीक कर सकते हैँ ।
हे पिता पृथु, हे माता अर्ची तुम्हे शत - शत प्रणाम् ।
नारायण स्मृतिः


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें