卐 सत्यराम सा 卐
झूठा गर्व गुमान तज, तज आपा अभिमान ।
दादू दीन गरीब ह्वै, पाया पद निर्वाण ॥
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साभार ~ नरसिँह जायसवाल
*--= गुरु कृपा से खुली गांठ =--*
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जैन संतों के श्रीमुख से यह कथा प्रायः सुनी जाती है। यह भगवान बाहुबली से संबंधित है, जिनकी कर्नाटक के श्रवणबेलगोला में विशाल प्रतिमा लगी हुई है।
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उनका नाम इसलिए बाहुबली था, क्योंकि वे विशाल शरीर और अपार बल के स्वामी थे। भगवान ऋषभदेव के १०० पुत्रों और एक पुत्री में बाहुबली सबसे बड़े थे। जब ऋषभदेव ने सन्यास लिया तो उनकी प्रेरणा से बाकि पुत्रों ने भी सन्यास का मार्ग अपना लिया, किंतु बाहुबली ने ऐसा नहीं किया। तब लोगों का आग्रह बढ़ा और धीरे-धीरे बाहुबली के मन में भी सन्यास का विचार आने लगा।
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किंतु एक दिक्क़त थी। यदि वे सन्यास लेते तो उन्हें आयु में छोटे अपने भाइयों को प्रणाम करना पड़ता। आखिर वे छोटे होने के बावजूद सन्यास के मार्ग पर उनसे आगे निकल चुके थे। बाहुबली ने सोचा कि यदि मैं इतना तप कर लूं कि सन्यास के मार्ग पर पहले निकल चुके अपने अनुजों से आगे निकल जाऊं, तो फिर अनुजों को ही मुझे नमन करना होगा।
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यह सोचने के बाद बाहुबली ने इतना कठोर तप किया कि उनके शरीर पर चींटियों ने घर बना लिए तथा हाथ-पैरों पर लताएं चढ़ गईं। पर बाहुबली नहीं थमे। उनका तप निरंतर बढ़ता गया। तप का तेज इतना फैला कि सारा वातावरण इससे प्रभावित हो गया। यह देखकर लोग भगवान ऋषभदेव के पहुंचे और पूछने लगे - "इतना कठोर तप, फिर भी बुद्धत्व क्यों नहीं घटता ?" यह सुनकर ऋषभदेव मुस्कराए और उन्होंने अपनी पुत्री को बाहुबली के पास भेजा। उसने जाकर अपने बड़े भाई बाहुबली के कान में धीरे से कहा - "हाथी की सवारी बहुत हो गई। अब जरा नीचे उतरो।"
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कहते हैं कि उसके बाद तत्क्षण बाहुबली ने अपनी छोटी बहन के चरण छुए और सन्यास घटित हो गया, क्योंकि उनका तप इसीलिए था कि अपने से छोटे को क्यों प्रणाम करूं। तप बहुत ऊंचा हो चुका था, किंतु छोटे को प्रणाम न करने का अहंकार शेष था, इसीलिए सन्यास घटने में बाधा थी। जैसे ही प्रणाम किया, बाहुबली स्वयं भगवत् तुल्य हो गए।
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सार यह है कि अध्यात्म समेत किसी भी क्षेत्र में अहं के त्याग बिना इन्सान की उन्नति संभव नहीं है।
सौजन्य / साभार - सन्मार्ग !
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