सोमवार, 8 मई 2017

= मन का अंग =(१०/११५-७)


#daduji 
卐 सत्यराम सा 卐 
*श्री दादू अनुभव वाणी* टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*मन का अँग १०* 
जहं जहं आदर पाइये, तहां तहां जिव जाइ ।
बिन आदर दीजे रामरस, छाड़ हलाहल खाइ ॥११५॥
जहां - जहां आदर मिलता है वहां - वहां ही सँसारी प्राणी जाता है । बिना सत्कार के यदि उसे राम भक्ति - रस पान कराया जाय तो उस सत्संग स्थान को त्याग कर वह विशेष सत्कार प्राप्ति के स्थान में तीव्र विषय - विष को भी खाता है=नारी प्रसंगादि की बातें बड़े प्रेम से कहता - सुनता है ।
*करणी बिना कथनी*
करणी किरका१ को नहीं, कथनी अनन्त अपार ।
दादू यों क्यों पाइये, रे मन मूढ़ गंवार ॥११६॥
११६ में कहते हैं - कथन तुल्य कर्त्तव्य बिना तत्व प्राप्त नहीं होता - कोई - कोई ऐसा वाचिक ज्ञानी देखा जाता है - "मैं अनन्त ब्रह्म स्वरूप हूं ।" ऐसा कहते हुये ब्रह्म सम्बन्धी बातें तो बहुत कहता है किन्तु उसमें साम्यता, सत्यता, असंगतादि धारणा रूप कर्त्तव्य लेश१ मात्र भी नहीं होता । ऐसे व्यक्ति को ही लक्ष्य करके कह रहे हैं - रे मूढ़ अज्ञानी - मन प्राणी ! इस प्रकार केवल कथन मात्र से ही ब्रह्म तत्व कैसे प्राप्त होगा ?
*जाया माया मोहनी*
दादू मन मृतक भया, इन्द्री अपने हाथ ।
तो भी कदे न कीजिये, कनक कामिनी साथ ॥११७॥
११७ में साधक को कनक कामिनी के त्याग की प्रेरणा कर रहे हैं । यद्यपि अभ्यास वैराग्यादि साधन द्वारा मन मर गया हो और इन्द्रियाँ भी अपने अधीन हो गई हों तो भी साधक को कनक - रजतादि माया का संग्रह और कामिनी का संग कभी भी नहीं करना चाहिए । ये दोनों मोहक हैं और मन को पुन: जीवित कर देती हैं । 
(क्रमशः)

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