शनिवार, 20 मई 2017

स्तुति का अंग १(१-४)

卐 सत्यराम सा 卐 
*परब्रह्म परापरं, सो मम देव निरंजनम् ।*
*निराकारं निर्मलं, तस्य दादू वन्दनम् ॥*
*जहँ तहँ विषय विकार तैं, तुम ही राखणहार ।*
*तन मन तुम को सौंपिया, साचा सिरजनहार ॥* 
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साभार विद्युत संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
**श्री रज्जबवाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**स्तुति का अंग १**
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मंगल करने से कार्य निर्विघ्न समाप्त होता है, अतः रज्जब जी अपनी वाणी के आदि में स्तुति रूप मंगल कर रहे हैं -
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दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरुदेवतः ।
वन्दनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगतः ॥ १ ॥
श्री गुरु देव दादू जी महाराज को तथ निरंजन परब्रह्म को और सब संतों को अनेक प्रणाम कर के, मैं वाणी रूप कार्य आरम्भ करता हूं, इसका जो विचार करके इसके सार तत्व को धारण करेंगे वे संसार सागर से पार हो कर परब्रह्म को प्राप्त होंगे ।
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सिजदा२ पूरे पीर१ को, गुरु ज्ञाताहिं डंडौत ।
रजब भये भगवंत के, सर्व आत्महुं नौत२॥ २ ॥
पूर्णता को प्राप्त सिद्ध१ महात्मा को, ज्ञानी गुरुजनों को और भगवान को मैं डंडवत प्रणाम२ करता हूँ, भगवान् को प्रणाम करने से सभी आत्माओं को प्रणाम हो जाता है ।
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गुरु अक्षर१ धर२ साधु कवि, सबन करूं शुभ स्तुति ।
रज्जब की चक३ चूक४ पर, क्षमा करो ह्वै सूति५ ॥ ३ ॥
श्री गुरुदेव, अविनाशी१ ब्रह्म, विष्णु२ संत और कवि आदि सभी की सुन्दर स्तुति करता हूँ, सभी मुझ पर अनुकूल५ रहते हुए मेरी महान३ भूल४ को भी क्षमा करेंगे ।
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शरीर शब्द की एक गति१, त्रिविध भाँति तन होय ।
भले बुरे बिच बपु बयन, दोष न दीज्यो कोय ॥ ४ ॥
शरीर और शब्दों की एक ही रीति१ होती है, अर्थात शरीर उत्तम, मध्यम, कनिष्ठ, तीन प्रकार के होते हैं और उन में शब्द भी उक्त तीन प्रकार के ही होते हैं, जैसे शरीर होते हैं उसके लिये वैसे ही शब्दो कहे जाते हैं उत्तम के लिये उत्तम, मध्यम के लिये मध्यम, कनिष्ठ के लिये कनिष्ठ अत: मेरे शब्द व्यवहार के लिये मुझे कोई भी दोष न दें ।
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित स्तुति का अंग १ समाप्त ॥सा. ४॥
(क्रमशः)

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