मंगलवार, 23 मई 2017

भेंट का अंग २(१-५)


卐 सत्यराम सा 卐

दयाल अपनै चरणनि मेरा चित्त लगावहु, नीकैं ही करी ॥ टेक ॥
नखशिख सुरति सरीर, तूँ नांव रहौं भरी ॥१॥
मैं अजाण मतिहीण, जम की पाश तैं रहत हूँ डरी ॥२॥
सबै दोष दादू के दूर कर, तुम ही रहो हरी ॥३॥
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साभार विद्युत संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**भेंट का अंग २**
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*स्तुति अंग के अनन्तर लघु उपहार और प्रभु मिलन का महत्त्व बताने के लिये भेंट का अंग कह रहे हैं ।*
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लाभ लहा किन हूं नहीं, दीरध दात१ न कीन्ह ।
रज्जब राम उमंग करि, सो दादू को दीन्ह ॥१॥
परमात्मा को देने१ योग्य महान् उपहार न देने वाले किस भक्त ने प्रभु प्राप्ति रूप हान लाभ नहीं लिया, अर्थात अति लधु भेंट देकर भी भक्त भगवान को प्राप्त हुये हैं । उस अति लधु एक पैसे की भेंट का ही अपना साक्षात्कार रूप फल हर्षावेश में आकर रामजी ने दादू जी को दिया था । बाल्यवस्था मे अहमदाबाद के कांकरियाँ तालाब पर वृध्द रूप भगवान को दादू जी ने एक पैसा भेंट किया था ।
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सांई लग१ सेवा रची, टर्या न अपनी टेक२ ।
दादू सम नहिं दूसरा, दीरघ दास सु एक ॥२॥
प्रभु की प्राप्ति तक१ भक्ति करते रहे, अपने प्रभु मिलन के प्रण२ से किंचित् भी नहीं हटे, अत: दादू जी के समय में दादू जी के समान महान् दूसरा एक भी भक्त ज्ञात नहीं होता ।
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दादू दूजा ना गह्या, निवह्या एक हि ठाट१ ।
जन रज्जब लागा नहीं, कंचन गिरि को काट ॥३॥
दादू जी ने एक परब्रह्म को ठोड कर, उपास्य रूप से अन्य को ग्रहण नहीं किया और एकमात्र निर्दभ रूप ढंग१ से ही जीवन निर्वाह किया जैसे सुवर्ण के पर्वत पर मैल नहीं जमता वैसे ही दादू जी के कोई भी दोष न लग सका ।
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करामात कर ना गही, सिध्दि न सूघी साध ।
रज्जब रिधि रूठा रह्या, दादू दिल सु अगाध ॥ ४ ॥
उस महान् दादू संत ने किसी भी चमत्कार को हृदय-हस्त में ग्रहण नहीं किया अर्थात आदर नहीं किया और सिध्दि की तो गंध तक न ली, अर्थात सिध्दियों में उनकी रूचि नहीं रही । रिध्दि से भी सदा उपराम ही रहे । अत: दादूजी का हृदय अति अगाध ज्ञात होता है ।
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दादू शूर अजीत गढ़, पूरा प्राण प्रचंड ।
रज्जब गुण जै जै करैं, हार्या सब ब्रह्मांड ॥५॥
दादूजी पूर्णता को प्राप्त हुये प्राणी हैं, मन और आसुर गुणों को जीतने के महान् वीर हैं । उनका अन्त: करण रूप दुर्ग कामादि के द्वारा नहीं जीता जा सकता । अत: कामादि गुण उनका जय घोष करते हैं । उनकी समता करने में सभी ब्रह्मांड के प्राणी हार मानते हैं, वा सभी ब्रह्मांड के प्राणी उनके दिव्य गुणों की समता करने में हार मान कर बारंबार उनकी जय ध्वनी करते हैं ।
(क्रमशः)

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