सोमवार, 1 मई 2017

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卐 सत्यराम सा 卐
दादू तो तूं पावै पीव को, मैं मेरा सब खोइ ।
मैं मेरा सहजैं गया, तब निर्मल दर्शन होइ ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya

परमात्मा सरल है, तो अहंकारियों को तो रस ही न रह जाएगा, परमात्मा कठिन है, तो अहंकारी उत्सुक है, कठिन में बड़ा आकर्षण है, चुंबक है, इसलिए मैं तुमसे कहता हूं कि तुम मंदिर —मस्जिदों में, गुरुद्वारों में, तीर्थों में जिन साधु —संन्यासियों को पाओगे, जरा गौर से देखना, उनमें सौ में से तुम निन्यानबे को महाअहंकारी पाओगे क्योंकि वे परमात्मा को खोजने चले हैं, तुम्हारी तरफ वे देखते हैं कि तुम कीड़े —मकोड़े क्या कर रहे हो पर दुकानदारी कर रहे हो, नौकरी कर रहे दफ्तर में, खेती —बाड़ी कर रहे—कीड़े —मकोड़े.........
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परमात्मा को खोजो, देखो हमारी तरफ, हम कुछ कर रहे हैं तुम क्या कर रहे हो? तुम तो पशु हो, तुम तो मनुष्य भी नहीं क्यों? क्योंकि तुम सरल को खोज रहे हो वे कठिन को खोज रहे हैं, और मैं तुमसे कहता हूं, सरल को खोजने में जो लग गया, वही संन्यासी है, जिसने कठिन को खोजने का मोह छोड़ दिया, यही त्याग है...
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कठिन का त्याग त्याग है, क्योंकि कठिन के त्याग के साथ ही अहंकार गिर जाता है। उसकी लाश हो जाती है, बिना कठिन के अहंकार जी ही नहीं सकता, कठिन की बैसाखी लेकर ही अहंकार चलता है सरल के साथ अहंकार की कोई गति नहीं है...
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इतना सरल है परमात्मा कि कुछ करने का उपाय नहीं, हुआ ही हुआ है, इसीलिए तो अष्टावक्र कहते हैं, कर्ता होने से नहीं पाओगे, सिर्फ साक्षी होने से मौजूद है, तुम जरा बैठकर, शात भाव से, आंख खोलकर देख तो लो। कहां दौड़े चले जाते हो? किस आप— धापी में लगे हो?’
osho 
अष्‍टावक्र: महागीता–(भाग–6) प्रवचन–90

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