सोमवार, 1 मई 2017

= १५ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू काया कारवीं, मोहि भरोसा नांहि ।
आसन कुंजर शिर छत्र, विनश जाहिं क्षण मांहि ॥ 
दादू काया कारवीं, पड़त न लागै बार ।
बोलणहारा महल में, सो भी चालणहार ॥ 
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साभार ~ Chetna Kanchan Bhagat

*★●....कब, कहाँ एक छोटी से घटना जीवन का....●★*
*★★★ रुख पलट दे, कोई नहीं जानता ★★★*
इब्राहीम सूफी फकीर हुआ, सम्राट था। एक रात सोया था। नींद आती नहीं थी। तभी उसे आवाज सुनाई पड़ी कि ऊपर छप्पर पर कोई चल रहा है। चोर होगा कि लुटेरा होगा कि हत्यारा होगा? जिनके पास बहुत कुछ है तो भय भी बहुत हो जाता है। आवाज दी जोर से कि कौन है ऊपर? ऊपर से उत्तर जो आया, उसने जिंदगी बदल दी इब्राहीम की। ऊपर से उत्तर आया, एक बहुत बुलंद और मस्त आवाज ने कहा : कोई नहीं, निश्चिंत सोए रहें, मेरा ऊंट खो गया है। उसे खोज रहा हूं।
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छप्परों पर ऊंट नहीं खोते। इब्राहीम उठा, सैनिक दौड़ाए कि पकड़ो कौन आदमी है, क्योंकि आवाज में एक मस्ती थी। आवाज में एक गीत था, एक मादकता थी। आवाज इब्राहीम के भीतर कोई तार छेड़ गयी। बेबूझ भी थी। उलटबासी थी। महलों के छप्परों पर ऊंटों की तलाश आधी रात… या तो कोई पागल है या कोई परमहंस है। पागल हो नहीं सकता, क्योंकि आवाज का जादू कुछ और कहता हैं। यह आदमी कुछ और ही ढंग का आदमी होगा। लेकिन नहीं पकड़ा जा सका। सिपाही भागे - दौड़े, लेकिन वह आदमी हाथ नहीं आया।
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और तभी द्वारपाल से कोई आदमी झगड़ा करने लगा। आवाज पहचानी हुई लगी। वही आवाज है और वह जो कह रहा था फिर उलटबासी थी। द्वारपाल कह रहा था - तुम पागल तो नहीं हो ! यह सराय नहीं, सम्राट का निवास - स्थल हैं। और वह आदमी कह रहा था कि मेरी मानो, यह सराय हैं। यहां कौन सम्राट है और किसके निवास - स्थान हैं? यह सारी दुनिया सराय है। ठहर जाने दो चार दिन देखो, कहता हूं ठहर जाने दो - चार दिन। चार दिन के लिए सराय से इनकार न करो।
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आवाज पहचानी-सी लगी और फिर बात में भी वही उलझाव था, बात में वही राज और रहस्य था। इब्राहीम भागा, बाहर आया। था आदमी अदभुत, उसे भीतर ले गया और पूछा : शर्म नहीं आती, राजमहल को सराय कहते हो! यह सिर्फ उकसाने को पूछा। वह आदमी खिलखिलाकर हंसने लगा। उसने कहा : राजमहल, तुम्हारा निवास - स्थान? तो तुम्हारा ही यह निवास - स्थान है? लेकिन कुछ वर्षों पहले मैं आया था तब एक दूसरा आदमी यही दावा करता था।
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इब्राहीम ने कहा: वे मेरे पिता थे, स्वर्गीय हो गये। और उस फकीर ने कहा : उसके पहले भी मैं आया था, तब एक तीसरा आदमी यही दावा करता था। इब्राहीम ने कहा: वे मेरे पिता के पिता थे, मेरे पितामह थे; वे भी स्वर्गीय हो गये। वह फकीर कहने लगा: तो फिर जो मैं कहता हूं ठीक ही कहता हूं कि यह निवास नहीं है, सराय है। तुम कब तक स्वर्गीय होने का इरादा रखते हो? फिर भी मैं आऊंगा, फिर कोई चौथा आदमी कहेगा कि यह मेरा निवास -स्थान है। यहां लोग आते हैं और जाते हैं। मानो मेरी, चार दिन ठहर जाने दो। यह कोई महल नहीं है न कोई निवास - स्थान है।
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बात चोट कर गयी। किन्हीं क्षणों में बात चोट कर जाती है। कोई अपूर्व क्षण होते हैं तब छोटी - सी बात भी चोट कर जाती है। बात दिखाई पड़ गयी। जैसे किसी ने झकझोर कर जगा दिया। जैसे किसी ने जबर्दस्ती आंख खोल दी। इब्राहीम थोड़ी देर तो ठिठका रह गया, जवाब दे तो क्या दे ! जवाब देने को कुछ था भी नहीं। और इस आदमी की मौजूदगी और इस आदमी का आह्लाद और इस आदमी की सचाई और इस आदमी की वाणी की गहराई प्राणों के आर - पार हो गयी। उसने कहा कि आप सिंहासन पर विराजे और इस सराय में जब तक ठहरना हो ठहरें। मैं चला। इब्राहीम बाहर हो गया। महल छोड़ दिया। सराय में क्या रुकना! फिर वह गांव के बाहर रहता था।
~ ओशो ~
(हंसा तो मोती चुगै, प्रवचन #10)

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