रविवार, 14 मई 2017

= ४२ =

卐 सत्यराम सा 卐
मरै तो पावै पीव को, जीवत बंचै काल ।
दादू निर्भय नाम ले, दोनों हाथ दयाल ॥ 
दादू मरणे को चला, सजीवन के साथ ।
दादू लाहा मूल सौं, दोनों आये हाथ ॥ 
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साभार ~ Sadhak sanjivani

*मनकी खटपट कैसे मिटे ? -४-*

अर्जुन चिन्ता करता है कि ये सब मर जायँगे, तो कुल में पाप फैल जायगा । पाप फैलने से वर्णसंकर पैदा हो जायँगे, फिर पितरों को पिण्ड नहीं मिलेगा । इनको मारने से बड़ा भारी पाप हो जायगा । भगवान् कहते हैं कि अरे, पहले ही हल्ला क्यों करता है ? अभी हुआ कुछ नहीं, चिन्ता ऐसे ही करता है ! जो हो गया, उसकी चिन्ता करता है अथवा जो नहीं हुआ, उसकी चिन्ता करता है, तो मुफ्त में उड़ता हुआ तीर अपनेपर लेता है ! जो अभी है ही नहीं, उसकी आफत पहले ही मुफ्त में खड़ी कर दी । तो खटपट आये तो उसमें फँस गये और चली जाय तो उसमें फँसे रहे । खटपट तो मिट जाती है, रहती नहीं, पर उसे पकड़-पकड़कर रोते हैं । उसे क्यों पकड़ो ? वह चली गयी तो मौज करो, आनन्द करो कि अब तो मिट गयी ।
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खटपट में शक्ति नहीं है रहने की । किसी का जवान ब्याहा हुआ बेटा मर जाय, तो मोह-आसक्ति के कारण हृदय में एक चोट लगती है । परन्तु वह मरता है, तब जैसी चोट लगती है, वैसी चोट दूसरे-तीसरे दिन नहीं रहती । पर रो-रोकर, याद कर-करके उसे रखते हैं । याद करते हैं फिर रोते हैं; इस तरह उसको पालते हैं । फिर भी वह हृदय की चोट एक दिन मर ही जाती है । चिन्ता-शोक मर ही जाते हैं । आप उन्हें रख सकते ही नहीं । है किसी में ताकत कि उन्हें रख ले ? 
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कुछ वर्षों के बाद तो चिन्ता-शोक बिलकुल मर जाते हैं । आपने तो रखने की खूब चेष्टा की, खूब रोये, खूब दूसरों को सुनाया कि यों था, ऐसा था, वह चला गयी । इतना शोक को पाला, फिर भी वह मर ही जाता है । मेहनत करनेपर भी नहीं रहता । इसलिये उसकी उपेक्षा कर दो । मर गया तो खत्म हो गया काम । अब क्या चिन्ता करें और क्या रोवें ? तो उसी समय शान्ति हो जाय । पर उसे पालेंगे, तो भी वह तो रहेगा नहीं । मेरी बात झूठी हो तो बोलो । तो जो मिटनेवाली थी, मिट गयी । बस खत्म हुआ काम । मिटनेवाले के साथ मिलो मत । कितनी सीधी बात है । 
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मेरी धारणा में आप जितने बैठे हो, इसमें कोई निर्बल नहीं है, जो कि इस बात को न मान सके । आप अपने को निर्बल मान लो, तो मैं क्या करूँ ? इतना तो आप जानते हो कि मैं धोखा नहीं देता, आपके साथ विश्वासघात नहीं करता । तो मेरी बातपर अविश्वास क्यों करो ? कोई धोखा होता हो तो बता दो कि तुम्हारी बात मानने से यह धोखा होता है । कोई हानि हो तो बता दो । पर मानने से लाभ होता है, इसे आप भी मानते हो, मैं भी मानता हूँ ।
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या तो स्वयं इसे समझने के लिये विचार कर लो अथवा दूसरे की बात मान लो‒इनमें से एक कर लो । बुद्धि की तीक्ष्णता की जरूरत नहीं है । तीक्ष्णता सहायता कर सकती है, पर बुद्धि की शुद्धि (एक निश्चय) जितनी सहायता करती है, उतनी तीक्ष्णता नहीं करती । बुद्धि में जड़ता हो या विक्षेप हो, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता । पर इस विषय को मैं समझूं इसी तरफ लक्ष्य हो ।
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*वास्तव में खटपट अपने में है ही नहीं‒यही सार बात है ।*
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*राम राम राम राम राम* 

'जीवनका सत्य’ पुस्तक से, 
पुस्तक कोड- ४१६, 
विषय- मनकी खटपट कैसे मिटे ?, 
पृष्ठ-संख्या- ८२-८४, 
गीताप्रेस गोरखपुर 
ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज

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