卐 सत्यराम सा 卐
*तब ही कारा होत है, हरि बिन चितवत आन ।*
*क्या कहिये समझै नहीं, दादू सिखवत ज्ञान ॥*
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साभार ~ Rinku Aditya
अभ्यासी कभी तो मन के संकल्प विकल्प रूप धारा मे प्रवाहित होकर विषय रूप बंगाल की खाड़ी मे गोता लगाता है, तो कभी निद्रा देवी की गोद मे जाकर प्रशांत महासागर मे गहरी डुबकी लगाता है । साधक की ये उभय दशाएं अत्यन्त शोचनीय हैँ। साधक इन अवस्थाओ से जब कभी छुट पाता है, तो मन मे बहुत पश्चाताप करता है और मन ही मन ही कहता ह हाय ! मै बैठा तो क्या करने और करने लग क्या ! चला तो था मन को वशीभुत करने ; किन्तु मन ही के वशीभूत हो गया । मेरा यह स्वर्ण सुअवसर, अमूल्य जिव नाशं व्यर्थ गया । पुनः संभलकर वह मनोनिग्रहार्थ जप ध्यानादि प्रारम्भ करता है ; किन्तु फिर भी शैतान मन अपनी धूर्तता से चुकता नहीं, अपनी पीठ दिखाकर दूसरी और भाग जाता है । इस प्रकार साधक मनोजय करने मे अपने को असमर्थ पाकर हतोत्साह हो जाता है । इतने मे संत दादूदयाल जी आकर ढाढस दिलाते है और कहते है, तुम साहस हीन मत होओ । एक तुम्हारी ही यह व्यथित हालत नहीं है। साधना की प्रथमावस्था मे प्रत्येक साधक की ऐसी ही हालत होती है ।
सब काहू को होत है, तन मन पसरै जाइ ।
ऐसा कोई एक है, उल्टा माहि समाइ ॥"
कोटि जतन करि करि मुए, यहु मन दह दिसि जाइ।
राम नाम रोक्या रहेँ, नाही आन उपाइ ॥
अनेक यत्न करने पर भी जब मनोनियत्रंण नहीं हुआ, तब एक दिन मै भी निराशा देवी की गोद मे बैठने चला । इतने मे गुरु कृपा की आशा किरण दिखाई दी और मैंने अपना हृदय खोलकर इस प्रकार मूक प्रार्थना की ~
मेरे तुमही राखनहार दूजा कोइ नहीं ।
..............अब राखो राखनहार 'दादू' त्यों रहे ॥
इस भाँति संत महात्मागण अपनी अनमोल शिक्षा द्वारा भक्तों को ढाढस दिलाते हैं कि घबराओ नहीं, साहसहीन मत होओ। तुम श्रद्धा समन्वित होकर गंतव्य मार्ग पर चलते जाओ, परमात्मा तुम्हारी सहायता करेंगे ।
"जौ तेहि पंच चलई मन लाई। तौ हरी काहे न होही सहाई ।।
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज
शून्य महल मे दियना बारि ले, आसा से मत डोल रे ॥"
*महर्षि सन्तसेवी जी*
जय गुरु
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