रविवार, 21 मई 2017

= ५४ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू करणहार जे कुछ किया, सोई हौं कर जाण ।
जे तूं चतुर सयाना जानराइ, तो याही परमाण ॥ 
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साभार ~ Vijay Divya Jyoti

*उत्तरदायित्व (RESPONSIBILITY)*

एक बच्चा अपने पिता का हाथ पकड़कर चल रहा है, और तब यदि बच्चा गिरता है तो सारी ज़िम्मेवारी पिता की होती है। लेकिन बच्चे ने पिता का हाथ छोड़ दिया या छुड़ा लिया और यदि अब वो गिरता है तो सारी ज़िम्मेवारी उसकी हो जाती है। Responsibility अर्थात उत्तरदायित्व हमारे स्वयं के ऊपर निर्भर है। यदि हमारा “मैं” कर्ता है तो हम अपने हर कर्म के लिए जिम्मेवार है। और अब अच्छा किया है तो मैंने किया है और बुरा किया है तो मैंने ही किया है क्योंकि अपने हर कृत्य के पीछे “मैं” कर्ता बनकर खड़ा हूँ। लेकिन जब कोई समर्पण कर देता है अर्थात उसकी रजा में राजी हो जाता है, तो फिर वो पाप और पुण्य के फल के पार हो जाता है। 
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जब तक व्यक्ति कर्ता के भाव से जीता है तब तक सारी जिम्मेवारी उसकी है। इसलिए है कि वो खुद अपने हाथ से जिम्मेवारी ले रहा है। ऐसे आदमी की हालत ठीक वैसी ही है जैसी रेलगाड़ी में सफर कर रहे उस आदमी की है जो बैठा तो चलती रेलगाड़ी में है लेकिन अपने सिर पर रखी हुई सामान की पोटली को नीचे गाड़ी पर नहीं रख रहा है कि कहीं गाड़ी पर अनावश्यक बोझ ना पड़ जाए जबकि सारा बोझ अंतिम रूप से गाड़ी पर ही है। ऐसी ही हालत हम सबकी भी है, इस अस्तित्वरूपी रेलगाड़ी अर्थात विराट परमात्मा में ही हम सब बैठे हैं लेकिन हमने कर्तारूपी पोटली अपने सिरों पर ही रखी हुई है जिसमें पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म, सही-गलत आदि के हिसाब किताब बांधे हुए हैं और सोच रहे हैं कि ये सब जिम्मेवारी हमारी है जबकि असली कर्ता में ही हम बैठे हुए है, इन सबका बोझ भी उसी विराट रेलगाड़ी पर है अंतिम रूप से। 
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यही तो कृष्ण ने कहा अर्जुन से कि बस तू समर्पण कर। रथ में तो तू बैठ ही गया है, बस अब ये कर्म-अकर्म, मित्र-शत्रु, जिंदा-मुर्दा और अपने-पराए की पोटली को सिर पर मत लादे रख, इसे भी रथ पर ही रख दे क्योंकि ये सब जिम्मेवारी अर्थात बोझ मुझ पर ही पड़ रहा है मगर तू नाहक उत्तरदायित्व अपने सिर पर लेकर परेशान हो रहा है। और अंततः अर्जुन ने समर्पण किया और अपना हाथ परमपिता के हाथ में दे दिया। अब सारी जिम्मेवारी उस परमपिता की हो गई।
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जब तक “मैं”(Pseudo “I”) अर्थात व्यक्ति मौजूद होता है, तब तक वह अपने कर्म के फल के लिए जिम्मेदार होता है, मगर जैसे जैसे वह वास्तविक “मैं” में उतरने लगता है या वास्तविक “मैं”(The Real “I”)को जान जाता है, वह इस ज़िम्मेदारी अर्थात कर्म के फल से मुक्त होने लगता है या मुक्त हो जाता है। चैतन्य के संदर्भ में वह इस पूरे अस्तित्व से एकाकार हो जाता है अर्थात जब हम अपने आप को इस विराट में छोड़ देते हैं, तब वास्तविक मुक्ति होती है। यदि और सटीक कहा जाए तो फिर यही कहा जाएगा कि मुक्त तो हम हैं ही बस पोटली सिर से उतारकर परमात्मा पर रखनी है क्योंकि सारा बोझ तो उसी पर है अंतिम रूप से, हम तो बस भ्रम पाले बैठे हैं। यही समर्पण है।

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