बुधवार, 24 मई 2017

भेंट का अंग २(६-९)


卐 सत्यराम सा 卐
*दुख दरिया संसार है, सुख का सागर राम ।*
*सुख सागर चलि जाइए, दादू तज बेकाम ॥* 
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साभार विद्युत संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**भेंट का अंग २**
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सकल नाग नर नि्ग्रहै, स्वांग्यों शब्द सुनाय ।
रज्जब दादू शेष गति, अहि विधि गह्या न जाय ॥६॥
सर्पो को पकड़ने वाले पूंगी का शब्द सुना कर सभी सर्पों को पकड़ लेते हैं किंतु साधारण सर्प के समान शेष नाग को नहीं पकड़ सकते, वैसे ही भेषधारी साधु सभी को अपने शब्दों द्वारा पकड़ कर शिष्य बना लेते हैं किंतु दादू जी तो शेष के समान महान थे, अत: उन्हें न पकड़ सके ।
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दादू दरिया राम जल, सकल संत जन मीन ।
सुख सागर में सब सुखी, जन रज्जब जो लीन ॥ ७ ॥
संत प्रवर दादूजी समुद्र हैं, राम ही जल है और सभी साधक संत मच्छियों के सामान हैं । जो साधक संत उक्त सुख सागर में निमग्न रहते हैं, वे सब सदा के लिए सुखी हो जाते हैं अर्थात गुरु के उपदेशानुसार राम का चिन्तन करते हैं वे सब आनन्द रूप राम को प्राप्त हो कर आनन्द रूप ही हो जाते हैं ।
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गुरू दादू रू कबीर की, काया भयी कपूर ।
रज्जब रीझ्या देखकर, सह गुण निर्गुण नूर ॥ ८ ॥
जैसे कपूर की टिकिया आकाश मे लय हो जाती है, वैसे ही गुरू दादू और कबीर का शरीर भी प्रभु में लय हो गया । रज्जब जी कहते हैं :- इस प्रकार दादू जी के सगुण शरीर को भी निर्गुण रूप होते देखकर मैं उनका अति प्रेमी भक्त बन गया हूँ । शरीर संस्कार के समय दोनों ही संतो के शरीरों के स्थान में चद्दरों के नीचे पुष्प मिले थे ।
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काया कपूर हिं ले गये, प्राणी परमल अंग ।
रज्जब मिलते देखिये, सहज शून्य के संग ॥ ९ ॥
जैसे कपूर अपने आकार को अपने स्वरूप सुगंधि के साथ ही ले जाता है वैसे ही प्राणधारी दादू जी अपने शरीर को अपने स्वरूप आत्मा के साथ ही ले गये, शव के रूप में नहीं छोड़ा । वे सहज शून्य ब्रह्म के साथ मिलते हुये शिष्यों के द्वारा देखे गये । भैराणा गिरी की गुहा द्वार पर शिष्यों के देखते देखते ही अन्तर्द्धान हुये थे ॥
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित भेंट का अंग २ समाप्त ॥सा. १३॥
(क्रमशः)

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