बुधवार, 24 मई 2017

= गुरुसम्प्रदाय(ग्रन्थ १०/१-२) =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🙏 *श्री दादूदयालवे नमः ॥* 🙏
🌷 *#श्रीसुन्दर०ग्रंथावली* 🌷
रचियता ~ *स्वामी सुन्दरदासजी महाराज*
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान
अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महमंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
https://www.facebook.com/DADUVANI
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*= गुरुसम्प्रदाय१(ग्रन्थ १०) =*
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(१. ग्रन्थ गुरुसम्प्रदाय--यह श्रीदादूसम्प्रदाय की प्रणाली जो सुन्दरदासजी ने कही है सो उनमें पूर्व के किसी अन्य ग्रन्थ में देखी नहीं गयी, परन्तु जाखल के मंगलरामजी साधु ने अरिल्ल छन्द में इस ही का अनुकरण किया है !
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जनगोपालकृत 'दादू जन्मलीला परची', श्रीचतुरदास कृत 'थांभापद्धति'. श्रीराघवदास कृत 'भक्तमाल' श्रीहरिदास कृत 'दादूरामोदय'(संस्कृत में) श्रीतुलससी कृत 'दादू विलास', श्रीवासुदेव कृत 'दादू चरित्र चंद्रिका' तथा अन्य दादू जन्मलीलाएँ जो साधुओं ने बनाई है उनमें से किसी में भी ये कुशलानन्द से लगाकर पूर्णानन्द तक के ३६नाम नहीं हैं ।
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दादूजी के गुरु श्रीपरब्रह्म स्वयं बृद्धानन्द वा बुड्ढन थे और अन्त में थे श्रीसुन्दरदासजी जो सब से पिछले शिष्य थे । 'ब्रह्मसम्प्रदाय' यह नाम श्रीदादूजी के सम्प्रदाय को राघवदासजी ने अवश्य दिया है । यही नाम श्रीसुन्दरदासजी ने दिया है जो राघवदासजी से पहले हुए थे । सम्भवतः इस प्रणाली की नामावली श्रीसुन्दर-दासजी ने किसी प्रतिपक्षी के समाधानके लिये रची होगी ।
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और ये ३६नाम('कुशलानन्द' आदि) ज्ञान की क्रमोन्नति या परिपाटी को प्रकारांतर से दिखाने को दे दिये । वास्तव में ऐसे नाम के किन्हीं पुरुषों का होना प्रमाणित नहीं सम्प्रदाय का तो उल्लेख श्रीसुन्दरदासजी ने अपने ग्रन्थ "गुरुकृपा अष्टक" के अन्त में भी किया है---"कहि सुन्दर ग्रन्थ प्रसिद्ध यह सम्प्रदाय परब्रह्म की ॥१८॥
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[इस ग्रन्थ में श्री स्वामी जी ने किसी के प्रश्न के उत्तर में प्रतिलोम रीति से, अर्थात् स्वयं अपने से लगा कर आदिगुरु ईश्वर(ब्रह्म) तक अपनी गुरुपरम्परा देकर अपने ब्रह्मसम्प्रदाय(दादूपन्थी सम्प्रदाय) का परिचय दिया है । श्री स्वामी जी की दी हुई दादूसम्प्रदाय की यह गुरुप्रणाली सम्प्रदाय के अन्य किसी इतिहास ग्रन्थ में नहीं मिलती ।
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सचाई यह है कि महाराज श्री दादूदयालुजी को तो भगवान् ने स्वयं वृद्ध रूप में आकर दीक्षा दी थी१ । उन वृद्ध को कोई कुछ नाम देना था तो किसी ने बुड्ढन लिख दिया, किसी ने वृद्धानन्द, तो किसी ने ब्रह्मानन्द । दोनों स्थितियों में ३८-३९ गुरुओं की प्रणाली चलाने की बात कहाँ आती है ।
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तब श्री सुन्दरदासजी जैसे परमज्ञानी गम्भीर सन्त ने सचाई जानते हुए भी यह अनहोनी कैसे लिख डाली ? बात यह है कि श्रीसुन्दरदासजी के समय में कुछ आगे पीछे लेकर बने हुए सम्प्रदायों में पुराने शास्त्रीय शैव वैष्णव संन्यासी सम्प्रदायों से होड लगी हुई थी कि किसका सम्प्रदाय पुराने से पुराना है । सम्प्रदाय का पुरातनत्व भी उस समय के समाज की श्रद्धा का विशेष कारण होता था ।
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इसीलिए उस समय के सभी सम्प्रदाय अपना पुरातन्व सिद्ध करने के लिए अपने-अपने सम्प्रदाय का आदिप्रवर्तक सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार, नारद, या दत्तात्रेय आदि को सिद्ध करते थे । उसी प्रसंग में किसी ने महाराज से भी उनकी गुरुपरम्परा पूछी होगी । महाराज ने भी मौज में आकर वृद्धानन्द से पूर्व के नामों की(ज्ञानी द्वारा जिन गुणों का साधना में अभ्यास किया जाता है उन नामों की) कल्पना कर अपनी गुरुप्रणाली को ब्रह्म से जा मिलाया ।
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इसीलिये इस परिहास को स्वामी जी ने बहुत गम्भीरतापूर्वक ग्रन्थ के प्रारम्भ में लिख दिया--"उक्ति मुक्ति तब आनि के करिये ग्रन्थ उचार" । अतः हम तो यह मानते हैं कि जब वृद्धानन्द स्वयं ब्रह्म के ही रूप थे और उन्हीं ने साक्षात् आकर हमारे परमगुरु को दीक्षा दी तो बीच के ३६नामों को कवि की कल्पना ही समझना चाहिये ।]
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(१. "दादू गैब मांहि गुरुदेव मिल्या, पाया हम परसाद ।
मस्तक मेरे कर धर्या, देख्या अगम अगाध" ॥)
--श्रीदादू वाणी(गुरुदेव को अंग,१ साखी)
(१. प्रत्येक नाम की श्री स्वामीजी व्याख्या ऐसे करते हैं जिससे उस नाम का अर्थ और ज्ञान का लक्षण तुरत समझ में आता है । और अन्य कुछ व्योरा इन नामों का देते नहीं कि किस देश में किस समय में थे । इसी से हमने यह निष्कर्ष निकाला है कि यह प्रणाली ज्ञान की पैडियों के गुणों का नाम मात्र हैं । न इनको कल्पित कह सकते हैं और न मिथ्या या सत्य ही कह सकते हैं ।
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इन से दूसरा नतीजा यह निकलता है कि श्रीदादूजी किसी सम्प्रदाय विशेष के शिष्य नहीं थे । उनको तो ईश्वर स्वयं बृद्धानन्द(बुड्ढन) रूप से ज्ञान दे गये । अतः इनकी परम्परा केवल ईश्वर ही से मिलती है और ईश्वर ज्ञानस्वरूप, चिदानन्द, चैतन्यधन है बीच में जो नाम हैं सो सब ईश्वरीय ज्ञान के पर्यायमात्र है ।)
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*= मंगलाचरण-दोहा =*
*प्रथमहिं निज गुरुदेव कौ, बन्दन बारम्बार ।*
*उक्ति युक्ति तब आंनि कै, करिये ग्रन्थ उचार ॥१॥*
सर्व प्रथम मैं(स्वामी सुन्दरदास) अपने गुरुदेव(श्री दादूदयालु जी महाराज) को बारम्बार प्रणाम करता हूँ । फिर इस ग्रन्थ के पाठकों को(इस ग्रन्थ को पढ़ना शुरू करने से पूर्व ही) एक बात समझा देना चाहता हूँ कि वे इस ग्रन्थ के कथन की शैली और इसमें दिये गये तर्कों(युक्तियों) को अच्छी तरह ह्रदय में जान-समझ कर ही इस ग्रन्थ को उच्चारण करना(बोल कर पढ़ना) प्रारम्भ करें, अन्यथा नहीं ॥१॥
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*= स्वसम्प्रदाय कथा = चौपाई =*
*नमस्कार गुरुदेव हि करिये ।*
*जिनकी कृपा हुतें भव तरिये ।*
*गुरु बिन मारग कोउ न पावै ।*
*गुरु बिन संशय कौंन मिटावै ॥२॥*
प्रत्येक आस्तिक साधक को अपने गुरु के सम्मुख हमेशा नतमस्तक(प्रणत) रहना चाहिये, जिनकी कृपा से वह इस संसार सागर को पार कर सकता है । कोई भी साधक गुरुदेव के बताये बिना सत्यमार्ग को नहीं पा सकता और गुरुदेव के बिना अन्य कोई भी साधक के द्वैतभ्रम नहीं मिटा सकता ॥२॥
(क्रमशः)

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