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॥ दादूराम सत्यराम ॥
*श्री दादू चरितामृत(भाग-२)*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*= विन्दु ९९ =*
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जनगोपालजी ने १५ वें विश्राम में इस प्रकार कहा है -
*= निज स्वरूप प्राप्ति =*
“हरि को दास कहूं नहिं राँचे,
मोटी रु सुक्षम माया बांचे ।
संतन से मिल हरि गुण गावे,
पारब्रह्म से मिल सचु१ पावे ॥
भजन - प्रताप मिलै हरि मांहीं,
निजानन्द मिल बहुरि न आहीं ॥”
परा भक्ति युक्त प्रभु का भक्त प्रभु को छोड़कर कहीं भी अनुरक्त नहीं होता है, स्थूल माया(नारी स्वर्णादि) सूक्ष्म माया(भोगवासनादि) दोनों की ही आसक्ति से बचता है । वह तो अपने ही समान संतों से मिलकर तथा साधक संतों से मिलकर हरिगुण - गाथाओं को ही गाता रहता है । उक्त प्रकार हरि गुण गाते हुये परब्रह्म से मिलकर ब्रह्मानन्द१ प्राप्त करता है । इस प्रकार वह भजन के प्रताप से परब्रह्म में ही मिल जाता है । निजानन्द स्वरूप परब्रह्म में मिलकर पुनः जन्मादि संसार में नहीं आता है । संतगुण सागर ग्रंथ में भी यही वर्णन है, देखिये तरंग २३ ~
- इन्दव -
है रमतीत सदा सुख-सागर,
स्वामीजी ज्योति स्वरूप समाये ।
बादल होय करे वरषा नभ,
बादल व्योम जुदे न रहाये ॥
यो हरि संतन को तन धारत,
भक्ति बधाय निरंजन पाये ।
ज्यों निधि मांहि मिले नदियाँ जल,
भेद अभेद कछू न कहाये ॥
जो सब में रमने वाले, सदा सुख - सागर, ज्योति स्वरूप निरंजन राम हैं, उन्हीं निरंजन राम के स्वरूप सनक मुनिश्वर के स्वरूप में ही दादूजी महाराज समा गये अर्थात् सनक रूप ही हो गये । उनमें भेद कुछ भी नहीं रहा । जैसे नभ में बादल होकर वर्षा करते हैं किन्तु बादल और नभ भिन्न २ प्रतीत होते हुये भी भिन्न नहीं रहते । बादल वर्षा करके आकाशरूप ही हो जाते हैं, वैसे ही पाप ताप संताप को हरने वाले हरि ही संतों का शरीर धारण करते हैं और संसार में भक्ति का विस्तार करके पुनः अपने निरंजन स्वरूप को ही प्राप्त हो जाते हैं ।
जैसे समुद्र से ही जल आकाश में चढ़ कर वर्षाता है और सांसारिक प्राणियों को सुख प्रदान करके पुनः नदियों द्वारा समुद्र में ही आ मिलता है तब नदी जल और समुद्र जल का भेद कुछ भी नहीं रहता है, वैसे ही हरि के स्वरूप संत प्रकट होकर अपने उपदेश द्वारा प्राणियों को प्रभु की भक्ति में लगाकर हरि स्वरूप को ही प्राप्त हो जाते हैं फिर उन संतों में और हरि में भेद कुछ भी नहीं रहता है, वे दोनों एक ही हो जाते हैं । ऐसा ही श्रुति कहती है - “ब्रह्मवेत्ता ब्रह्म ही होता है ।” उक्त सिद्धान्त के अनुसार दादूजी महाराज ब्रह्म स्वरूप को ही प्राप्त हुये थे, किसी लोक विशेष में नहीं गये थे । यह दादूजी महाराज के योगी शिष्यों ने अपनी योग शक्ति से हाथ के आमले के समान प्रत्यक्ष देखा था और वही कहा है -
करामात कर ना गही, सिद्धि न सूंघी साध ।
रज्जब रिधि रूठा रहा, दादू दिल सु अगाध ॥
दादूजी महाराज ने करामात को किंचित् मात्र भी नहीं अपनाया था । उनके जीवन मेजो करामातें प्रतीत होती हैं वे तो उनकी रक्षा के लिये हरि ने ही चेष्टायें की थीं ।
यह दादू चरित्रों को सम्यक् पढ़ने से विचारशीलों को अपने आप ही ज्ञात हो जाता है । उन संत शिरोमणि दादूजी महाराज ने सिद्धियों से काम लेना तो दूर रहा, उनकी गंध तक नहीं ली थी । उसी प्रकार वे संपत्ति से भी पूर्ण विरक्त रहे थे । यह दादूजी महाराज के चरित्रों में प्रसिद्ध ही है । उन्होंने अकबर, राजा बीरबल, आमेर नरेश मानसिंह, बीकानेर नरेश रायसिंह आदि अनेक छोटे मोटे राजाओं तथा अनेक श्रीमानों के अति आग्रह करने पर भी कुछ नहीं लिया था । भिक्षान्न से ही निर्वाह करते थे और फटने पर वस्त्र लेते थे । ये सब बातें पूर्व चरित्र से भली भांति ज्ञात होती हैं । यह निश्चय सबको ही होना चाहिये कि दादूजी महाराज अगाध हृदय वाले संत थे ।
(क्रमशः)
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