मंगलवार, 9 मई 2017

= मन का अंग =(१०/११८-२०)

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卐 सत्यराम सा 卐 
*श्री दादू अनुभव वाणी* टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*मन का अँग १०* 
*मन*
अब मन निर्भय घर नहीं, भय में बैठा आइ ।
निर्भय संग तैं बीछुट्या, तब कायर ह्वै जाइ ॥११८॥
११८ - १२५ में मन विषयक विचार कर रहे हैं - यह मन भयप्रद भोगासक्ति रूप वन में आकर बैठ गया है । इस कारण ही अब इसे भय रहित निजात्म स्थिति रूप घर नहीं मिल रहा है । जब से यह निर्भय निरंजन राम के चिन्तन - संग से अलग होता है, तब से ही कायर हो जाता है=साधन - शौर्य से कामादि को जीतकर निर्भय घर प्राप्त करने में समर्थ नहीं होता ।
दादू मन के शीश मुख, हस्त पांव है जीव ।
श्रवण नेत्र रसना रटे, दादू पाया पीव ॥११९॥
मन की साँसारिक इच्छा के अनुसार शीश - मुखादिक रहते हैं तब तक मन के ही कहलाते हैं किन्तु जिस जीवात्मा ने शास्त्र सँतों के उपदेश से शीश को हरि चरणों में झुका कर, मुख को स्तुति गाकर, हाथों को सेवा करके, पैरों को भगवद्धाम सत्संगादि में जाकर, श्रवणों को कथा सुनाकर, नेत्रों को दर्शन कराके, रसना को नाम रटा के भगवत् परायण किया है, उसने अपना स्वामी परमात्मा प्राप्त किया है । सुन्दरदासजी ने मन के अँग इस प्रकार बताये हैं: - 
मन गयँद बलवँत, तास के अँग दिखाऊं । 
काम क्रोध अरु लोभ, मोह चहुं चरण सुनाऊं ॥
मद मत्सर है शीश, सूँड तृष्णा सु डुलावे । 
द्वन्द्व दशन है प्रकट, कल्पना कान हिलावै ॥
पुनि द्विविधा दृग देखत सदा, पूँछ प्रकृति पीछे फिरे ।
कहि सुन्दर अँकुश ज्ञान के, पीलवान गुरु वश करे ॥
जहं के नवाये सब नवें, सोइ शिर कर जाण ।
जहं के बुलाये बोलिये, सोई मुख परमाण ॥१२०॥
जिस ब्रह्म की सत्ता से सब प्राणी नीचे झुकना आदि क्रिया करने में समर्थ होते हैं वही सब विश्व में शिरोमणि हैं और उसको जो मस्तक नमता है, उस मस्तक को ही श्रेष्ठ जानो । जिसकी सत्ता से सब बोल ते हैं, उसी के नामों का उच्चार करता है, वही मुख प्रामाणिक है=श्रेष्ठ है वो वह ब्रह्म ही शिर और मुख है । 
(क्रमशः)

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