गुरुवार, 25 मई 2017

= माया का अंग =(१२/१६-८)

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐 
*श्री दादू अनुभव वाणी* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*माया का अँग १२*
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दादू माया का बल देख कर, आया अति अहँकार । 
अँध भया सूझे नहीं, का करि है सिरजनहार ॥ १६ ॥ 
सँसारी प्राणी के हृदय में मायिक ऐश्वर्य के बल से महान् अहँकार आ जाता है और वह धन - मद से अपने विवेक - विचार - नेत्रों को खोकर अँधा हो जाता है । उसे यथार्थता नहीं दीखती, इसीलिए कहता रहता है - ईश्वर क्या करता है ? सब कुछ हम ही करते हैं । 
*विरक्तता* 
मन मनसा माया रती, पँच तत्व प्रकास । 
चौदह तीनों लोक सब, दादू होइ उदास ॥ १७ ॥ 
१७ - २० में मायिक प्रपँच से विरक्त होने की प्रेरणा कर रहे हैं - माया के कार्य आकाशादि पँच तत्वों से ही चौदह भुवन और तीनों लोकों की उत्पत्ति होती है । इसीलिए मन और बुद्धि की प्रीति मायिक पदार्थों में ही होती है । किन्तु मायिक पदार्थों की प्रीति से जन्मादि खेद ही मिलता है । अत:जन्मादि दु:खों की निवृत्ति और परमानन्द की प्राप्ति के लिए मायिक प्रपँच से उदास होकर मन बुद्धि को परब्रह्म में ही लगाओ । 
माया देखे मन खुशी, हिरदै होइ विकास । 
दादू यह गति जीव की, अंत न पूगे१ आस ॥ १८ ॥ 
सँसारी प्राणियों का मन मायिक पदार्थों को देखकर प्रसन्न होता है और हृदय भी प्रफुल्लित होता है किन्तु यह जो मायिक पदार्थों को प्राप्त करने के लिए जीव को दौड़ाता है, इससे कल्पान्त तक भी इसकी परमसुख की आशा पूर्ण१ न हो सकेगी ।
(क्रमशः)

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