गुरुवार, 4 मई 2017

= विन्दु (२)९९ =

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॥ दादूराम सत्यराम ॥
*श्री दादू चरितामृत(भाग-२)* 
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*= विन्दु ९९ =*
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दादू दीन दयाल की, गति१ गोपाल न जान । 
प्राण पिण्ड ज्योति मिले, ज्यों जल जल हिं समान ॥ 
(जन गोपालजी कृत्त जीवनी , विश्राम १५।९० अन्तिम पद्य ।) 
दीनों पर दया करने वाले दादूजी महाराज की अन्तिम अवस्था१ को सर्व साधारण प्राणी तो किसी प्रकार नहीं जान सकते हैं । कोई महान् योगी तथा ज्ञानी संत ही जान सकते हैं । उनके तो प्राण तथा शरीर दोनों ही ज्योति स्वरूप परमात्मा में ऐसे मिल गये थे जैसे जल में जल मिल जाता है । अतः उनकी अन्तिम स्थिति को देख कर तो महान् योगी जन भी आश्चर्य करते हुये धन्यवाद देते हैं । उक्त प्रकार दादूजी महाराज अपने स्वरूप को प्राप्त हो गये । 
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अब भैराणे से प्रस्थान करके दादूजी महाराज के शिष्य गरीबदासजी आदि तथा भक्त नारायणा नरेश नारायणसिंह आदि हरिनाम चिन्तन करते हुये नारायणा नगर में आ गये । फिर दूसरे दिन एक सभा का आयोजन किया गया । राम चौक में सभा हुई । उसमें सर्व प्रथम गरीबदासजी बोले - हे संतों तथा भक्तों ! श्री दादूजी महाराज ब्रह्मलीन हो गये हैं । उनके लिये शोक सभा तथा श्रद्धांजलि सभा की आवश्यकता नहीं थी । वे तो शोकातीत थे और अन्य सब को भी शोकातीत होने का ही उपदेश करते थे । अतः उनके लिये शोक करना तो उनके उपदेशों की अवहेलना ही करना होगा । 
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श्रद्धांजलि द्वारा उनकी आत्मा को शांति पहुँचाने की बात भी उचित नहीं है, वे तो पूर्ण काम ब्रह्म स्वरूप संत थे किंतु यह सभा तो अब हमें आगे क्या करना है, उसी के लिये बुलाई गई है । यदि आप लोग कहैं कि शरीरांत के पश्चात् जो करना होता है वही हम को करना चाहिये, तो दादूजी महाराज के शरीर की जो घटना घटित हुई, वह आप सबको ज्ञात ही है । शरीर भी यहां नहीं छोड़ा गया है तब शरीर छोड़ने के पीछे की क्रिया करना तो संभव नहीं है । और आत्मा के लिये कुछ भी नहीं किया जाता है, वह तो ब्रह्म स्वरूप है । 
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*= महोत्सव विचार =* 
अतः उक्त कार्यों से भिन्न एक महोत्सव रह जाता है, उस का करना लोक व्यवहार तथा परमार्थ दोनों ही दृष्टियों से उचित है । महोत्सव में संत सम्मलेन होगा, वह लोक कल्याण के लिये भी आवश्यक है । दादूजी महाराज ने भी माधवकांणी को उनके गुरुजी का महोत्सव तथा संत सम्मेलन करने की आज्ञा दी थी और महोत्सव के समय सात दिन तक महान् सत्संग आदि कार्य के द्वारा लोकों का भला ही हुआ था । अतः महोत्सव करना परम आवश्यक है । 
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संतों के सिद्धांत में ब्रह्मलीन होना सबसे बड़ी बात है । उसका उत्सव भी महान् ही मनाया जाता है । इससे इस उत्सव को महोत्सव कहा जाता है । इस विषय में आप सभी गुरुभाई संत तथा नारायणसिंह आदि भक्त-गण जो यहां उपस्थित हैं अपना - अपना परामर्श दें कि - महोत्सव मनाना है या नहीं और मनाना है है तो किस रूप में और कितने दिन तक उत्सव मनाना है । ये सब बातें आज इस सभा में निश्चय करली जायें जिससे आगे उसी के अनुसार कार्य - क्रम निश्चय किया जाय । गरीबदासजी इतना कह - कर मौन हो गये ।
(क्रमशः)

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