गुरुवार, 4 मई 2017

= मन का अंग =(१०/१०३-५)

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
*श्री दादू अनुभव वाणी* टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*मन का अँग १०* 
जहां सुरति तहं जीव है, जहं जाने तहं जाइ ।
गम अगम जहं राखिये, दादू तहां समाइ ॥१०३॥
वृत्ति को जहां के पदार्थों का ज्ञान होता है, वहां के पदार्थों में ही जाती है और जहां वृत्ति जाती है, वहां ही जीव भी जाता है । इन्द्रियों की जिसमें गति होती है, ऐसी मायिक सृष्टि के पदार्थों को वृत्ति जानती है और उनमें ही सतत जाती है । उनमें ही वृत्ति रक्खी जाय तो, मायिक सँसार में ही समाया रहता है और यदि सँत, शास्त्रादि द्वारा अगम ब्रह्म को जान कर ब्रह्म में ही वृत्ति रक्खी जाय तो ब्रह्म में समा जाता है ।
मन मनसा का भाव है, अन्त फलेगा सोइ ।
जब दादू बाणक१ बण्या, तब आशय२ आसन होइ ॥१०४॥
कुछ लोग भक्त न होने पर भी भक्त से दिखाई देते हैं किन्तु अन्त में वही फलेगा, जो उनके मन में छिपा हुआ मनोरथ और बुद्धि का विचार है । ऐसे लोगों का जब मनोरथ सिद्ध होने का योग१ बैठता है तब अपनी वासना२ के अनुसार ही वे सँसार में फंस कर बैठ जाते हैं और भक्ति का ढोंग छोड़ देते हैं ।
जप तप करणी कर गये, स्वर्ग पहूंचे जाइ ।
दादू मन की वासना, नरक पड़े फिर आइ ॥१०५॥
अनेक प्रकार से सकाम जप तपादि कर्त्तव्य कर्म करके अपनी वर्तमान स्थिति से आगे बढ़ गये और स्वर्ग में भी जा पहुंचे किन्तु फिर भी मन की कुत्सित वासना के प्रभाव से नरक में आ पड़े हैं । ऐसे नहुषादि के चरित इतिहास प्रसिद्ध हैं । 
(क्रमशः)

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