गुरुवार, 1 जून 2017

= माया का अंग =(१२/३६-८)

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐 
*श्री दादू अनुभव वाणी* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*माया का अँग १२*
जैसे मर्कट जीभ रस, आप बंधाना अँध । 
ऐसे दादू हम भये, क्यों कर छूटे फँध ॥३६॥ 
जैसे वानर जिव्हा के स्वादवश अपने आप ही अँधा होकर बंध जाता है । (वानर को पकड़ने वाले छोटे मुख के बर्तन में चने भर कर भूमि में गाड़ देते हैं । वानर उससे अपने दोनों हाथों की मुट्ठियों में चने भर कर एक साथ निकालना चाहता है । मुख संकड़ा होने से मुट्ठियां नहीं निकलतीं, आगे पीछे निकालने की समझ नहीं । इतने में पकड़ने वाला आकर पकड़ लेता है) वैसे ही अज्ञानी जीव जिव्हादि इन्द्रियों के स्वाद से कर्म बन्धन में बंध जाते हैं, फिर उनका बन्धन कटना कठिन हो जाता है । 
ज्यों सूवा सुख कारणै, बँध्या मूरख माँहिं । 
ऐसे दादू हम भये, क्यों ही निकसैं नाँहिं ॥३७॥ 
जैसे मूर्ख शुक पक्षी पानी पीने के सुख के लिए नलिका में बंध जाता है । (तोते को पकड़ने वाले जल के कुंडे पर पानी खेंचने की चकली के समान नलिका लगा देते हैं । तोता उस पर बैठकर पानी पीने के लिए नीचे झुकता है तब वह घूम जाती है, तोते का मस्तक नीचे लटक जाता है । पैरों से नलिका पकड़े रहता है और मुझे किसी ने बांध लिया, ऐसा समझ कर बोल ने लगता है, तब पकड़ने वाला आकर पकड़ लेता है) ऐसे ही अज्ञानी प्राणी विषय - जाल में फंस जाते हैं, फिर उनका निकलना किसी प्रकार भी संभव नहीं होता । 
जैसे अँध अज्ञान गृह, बँध्या मूरख स्वाद । 
ऐसे दादू हम भये, जन्म गमाया बाद ॥३८॥ 
जैसे मूर्ख भ्रमर कमल गँध की मस्ती से अँधा होकर वास - रस आस्वादन के लिए सूर्यास्त के समय कमल - कोश में बंध जाता है, वैसे ही सँसारी प्राणी अज्ञान वश घर के कार्यों में फंस कर अपना जन्म व्यर्थ ही खो देते हैं ।
(क्रमशः)

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