रविवार, 4 जून 2017

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卐 सत्यराम सा 卐
*दादू एक बेसास बिन, जियरा डावांडोल ।*
*निकट निधि दुःख पाइये, चिंतामणि अमोल ॥* 
*दादू बिन बेसासी जीयरा, चंचल नांही ठौर ।*
*निश्चय निश्चल ना रहै, कछू और की और ॥* 
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साभार ~ Maharshi Mehi Paramhans
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जब तक सब ग्रंथों तथा संतों में विश्वास नहीं तो किया जाएगा तब तक धर्म को कोई नहीं जान सकता है । विश्वास ऐसा कि कभी हिले डोले नहीं । वह ईश्वर का स्वरूप रूपी धन अभी अव्यक्त है जो भक्ति से व्यक्त हो जाएगा । इससे यह निचोड़ निकलता है कि इंद्रिय और शरीर से ईश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो सकता। अपने को जड़ विहीन करके केवल चेतन ही चेतन रहे तब व्यक्त हो जाएगा कि यह ईश्वर है । यदि भक्ति का फल मोक्ष चाहते हो तो यही काम करो। 
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पहले तो अपने को और अपने शरीर को भिन्न भिन्न करके जानना मुश्किल होता है। बहुत लोग कहते हैं कि हम तो जड़ से विहीन है ही, हमको तो स्वरूप का ज्ञान प्राप्त ही है । उनसे मैं कहता हूँ, हे ज्ञानवान पुरुष आप को ज्ञान प्राप्त ही है तो आपको भूख और प्यास क्यों लगती है , यहां तक कि पेशाब और पाखाना भी लगता है । ऐसे ज्ञान से कोई लाभ नहीं । खाली मन-ही-मन खीर बनाकर खा लेना कहाँ तक यथार्थ है। अंधेरी रात में बैठकर केवल चिराग की बात करने से प्रकाश होगा ? 
*तेल तूल पावक पुट भरि-भरि, बने न दिया प्रकाशत।*
*कहत बनाय दीप की बातें, कैसे हो तमनाशत ॥"* 
- संत सूरदास जी 

इसलिए यत्न करना होगा इंद्रियों के ज्ञान से। चेतन आत्मा का निजी ज्ञान भिन्न है । सुस्त बनने से व साधन विहीन होकर रहने से निजी लाभ नहीं होगा। जैसा संत लोग बताते हैं वैसा करो। संतो ने जो रास्ता बताया है वह व्यक्त ही व्यक्त है । साधक पहले स्थूल व्यक्त को जानता है , तब सूक्ष्म व्यक्त को जानता है । संत के कहे अनुसार यकीन करो तो जो सूक्ष्म अव्यक्त है वह व्यक्त हो जाएगा । सबसे पहला अव्यक्त जो पुरूषोत्तम है वह भी व्यक्त हो जाएगा । वह चेतन आत्मा को व्यक्त होगा । जड़ विहीन चेतन आत्मा का जो ज्ञान होगा उसी ज्ञान की दशा में ईश्वर का दर्शन होगा। गोस्वामी तुलसीदास जी केवल मोटी भक्ति में नहीं थे । विनय पत्रिका में है -
*यहि ते मैं हरि ज्ञान गँवायो।।*
*परिहरि हृदय कमल रघुनाथहि,* 
*बाहर फिरत विकल भये धायो॥"*
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सूरदास जी ने भी कहा,*
*"अपुन को आपुन ही में पायो।*
शब्दहिं शब्द भयो उजियारो, सतगुरु भेद बतायो॥"*
अब बताइए कि नानक बाबा और कबीर बाबा इनसे आगे की बात कहे हैं क्या ? इतना फर्क जरूर है कि सगुण भक्ति के बारे में गोस्वामी तुलसीदास जी तथा सूरदास जी ने विशेष जरूर कहा और निर्गुण के बारे में कम। सब संत बराबर हैं । कोई-कोई कबीर साहब को निर्गुण वाले मानते हैं । क्या वह गुरु को मानते थे कि नहीं ? गुरु का रूप सगुण ही हुआ । ईसाई मानव बनो तब भी गुरु है । इस्लामी बनो तब भी गुरु है । जितने ईश्वर को मानने वाले हैं सब में गुरु है । जितने संप्रदाय हैं सब में गुरु हैं । ईश्वर को नहीं मानने वाले नास्तिक को भी गुरू हैं। जब से लोगों ने गुरु को मानने वाले की प्रतिष्ठा में कम स्थान दिया है, तब से लोग भूले हैं।
*- महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज*

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