बुधवार, 9 अगस्त 2017

= बावनी(ग्रन्थ १३/२९-३०) =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🙏 *श्री दादूदयालवे नमः ॥* 🙏
🌷 *#श्रीसुन्दर०ग्रंथावली* 🌷
रचियता ~ *स्वामी सुन्दरदासजी महाराज*
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान
अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महमंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*= बावनी(ग्रन्थ १३) =*
*जजा जानत जानत जाने,*
*जतन करे तो सहज पिछाने ।*
*जो जुगति तनमनहि जरावै,*
*जरा न व्यापै जोति जगावै ॥२९॥*
*(ज)* 'ज' हमें यह बताता है साधक उस परमतत्व को श्रवण, मनन, तथा निदिध्यासन द्वारा साधना करते-करते एक दिन उसे जान लेता है । प्रयत्न करके उसका साक्षात्कार कर लेता है । योग की विधि से तन-मन(इन्द्रिय) के वेग को जला दे तो ऐसा साधक कभी अपना बुढ़ापा ही नहीं देखता(दीर्घायु हो जाता है) । अपितु वह एक दिन तेजःपुञ्जमय शरीरधारी होकर अपनी अन्तःर्ज्योति(ब्रह्मज्ञान) जगा लेता है अर्थात ब्रह्मज्योतिस्वरूप आत्मा के आकार का साक्षात्कार कर लेता है ॥२९॥
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*झझा झरत रहै झल देखै,*
*झकि झुकिनी झर पिचै अलेखै ।*
*झूंकी कटकि उलटा रस बूझै,*
*झलमल झाल दशौदिश सूझै ॥३०॥*
*(झ)* 'झ' का गूढार्थ यह है- साधक सतत साधना से अपने अन्तःपटल से उस दिव्यज्योति की किरणें निकलती हुई देखता है । और कुछ श्रम करने से वह उससे निरन्तर निकलते हुए अदृश्य अमृत रस का पान कर सकता है । वीरता-पूर्वक अपनी इन्द्रियों का शिर काट कर(निग्रह कर) उलट रस(ब्रह्मरस) पी सकता है । और साधना के अन्त में उस योगी की यह स्थिति हो जाती है कि वह दसों दिशाओं में(अपने चारों ओर) एकमात्र उस दिव्य ज्योति की अपूर्व चकमक देखता है ॥३०॥
(क्रमशः)

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