शुक्रवार, 11 अगस्त 2017

= १८३ =



卐 सत्यराम सा 卐
*यंत्र बजाया साज कर, कारीगर करतार ।*
*पंचों का रस नाद है, दादू बोलनहार ॥* 
*पंच ऊपना शब्द तैं, शब्द पंच सौं होइ ।*
*सांई मेरे सब किया, बूझै विरला कोइ ॥* 
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साभार ~ www.osho.com
तथापि न तव स्वास्थ्य सर्वविस्मरणादृते।
'जब तक तू सब न भूल जाये तब तक तुझे स्वास्थ्य उपलब्ध न होगा।' (अष्टावक्र: महागीता)

ये सूत्र इशारा कर रहा है कि, जितना भी ज्ञान हमने बाहर से एकत्र किया हुआ है, चाहे शास्त्रों से, चाहे, धर्म गुरुओं से, सबको भुला के खाली होना होगा। बाहर का कोई भी शब्द हमे जगा नहीं सकता। लेकिन हमारा तो शब्द पर बड़ा भरोसा है और हमें शब्द के माधुर्य में बड़ी प्रीति है। शब्द मधुर होते भी हैं। शब्द का भी संगीत है और शब्द का भी अपना रस है। इसलिए तो काव्य निर्मित होता है। इसलिए शब्द की जरा सी ठीक व्यवस्था से संगीत निर्माण हो जाता है। 
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फिर शब्द में हमें रस है क्योंकि शब्द में बडे तर्क छिपे है। और तर्क हमारे मन को बड़ी तृप्ति देता है। अंधेरे में हम भटकते हैं, वहां तर्क से हमें सहारा मिल जाता है लगता है कि चलो कुछ नहीं जानते; लेकिन कुछ तो हिसाब बंधने लगा, कुछ तो' बात पकड में आने लगी, एक धागा तो हाथ में आया, तो धीरे-धीरे इसी धागे के सहारे और भी पा लेंगे। और हमारा छपे हुए शब्द पर तो बड़ा ही आग्रह है।
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परमात्मा की भाषा मौन है। इसका यह अर्थ नहीं है कि शब्द कोई शैतान की भाषा है। इसका इतना ही अर्थ है कि सत्य तो तभी अनुभव होता है जब कोई मनुष्य परिपूर्ण मौन को उपलब्ध होता है। लेकिन जब मनुष्य कहना चाहता है तो उसे माध्यम का सहारा लेना पड़ता है। तब जो उसने जाना है वह उसे शब्द में रखता है; बस रखने में ही अधिक तो समाप्त हो जाता है।

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