शनिवार, 16 सितंबर 2017

= ४९ =

卐 सत्यराम सा 卐
मुख बोल स्वामी तूँ अन्तर्यामी, 
तेरा शब्द सुहावै राम जी ॥ टेक ॥
धेनु चरावन बेनु बजावन, 
दर्श दिखावन कामिनी ॥ १ ॥
विरह उपावन तप्त बुझावन, 
अंगि लगावन भामिनी ॥ २ ॥
संग खिलावन रास बनावन, 
गोपी भावन भूधरा ॥ ३ ॥
दादू तारन दुरित निवारण, 
संत सुधारण राम जी ॥ ४ ॥
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साभार ~ Udailal Menariya Dasanudas

*विषय ~ गौसेवा से प्रभु के गोचारण और नित्य लीला के दर्शन*
चौरासी वैष्णव- वार्ता(वल्लभ कुल की भक्तमाल) में एक चरित्र आता है। एक पटेल जाति का भक्त था, वह आकर के जतीपुरा में रह गया। श्री गौसाई विठलनाथ जी महाराज ने उसे ब्रह्मसंबंध प्रदान कर दिया और श्रीनाथ जी की गौसेवा में उसको लगा दिया । बरसात के मौसम में ऐसी वर्षा हुई कि दिन और रात पानी की झडी लगी रही। गाय कहाँ खोलकर ले जाये इतनी तेज बारिश में, गायों को गौशाला में ही रखना पडा। गायें वहीं गोबर और गौमुत्र करती, वह भक्त गौशालाओं को साफ़ करता रहता। गायों की सेवा करता रहता ।
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उस समय जतीपुरा में श्रीनाथ जी विराजते थे और सेवकों को मंदिर से प्रसाद मिलता था। उसे गौसाई महाराज ने कहा था जाकर प्रसाद ले लेना। सब ग्वारिया तो अपनी सेवा करके पंगत करने चले जाते, लेकिन यह नहीं जाता। इसको सेवा करते-करते समय लग जाता और प्रसादी के समय ना पहुंचने से प्रसाद नहीं मिल पाता। स्थिति यह बनी की जब भूखे ही गौसेवा करता रहा तो उसके उपर गौमाता संतुष्ट हुई और और जब गौमाता संतुष्ट हुई तो ग्वारिया गौविंद असंतुष्ट कहाँ से रहते ? ठाकुर श्रीनाथजी संतुष्ट हो गये और श्रीनाथजी अपना शयनभोग लेकर खुद पधारे। वह तो गौसेवा करता और ठाकुर जी की ड्यूटी हो गयी प्रसाद पहुँचाने की।
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प्रेम से पा लेता एक दिन ठाकुर जी अपना सोने का थाल, झारी सब वहाँ छोड कर आ गये। खबर पडी कि ठाकुर जी का शयनथाल झारी सब कहाँ चला गया ! जाकर देखा तो ग्वाल भक्त के पास था। गौसाई श्रीविठलनाथ जी ने ग्वालभक्त को बुलाकर पूछा तो बोला रात को तो आये थे, ठाकुर जी बोले - 'तुम गौसेवा करते हो लो खाओ- पियो मस्त रहो।' 
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तब गौसाईजी ने कहा - ठाकुर जी को कष्ट होता है, तो कहा की अब से हम भेज देंगे तुम्हारे लिये प्रसाद, किसी ग्वरिया के हाथ से गौसाई जी प्रसाद भेजवा देते, प्रसाद ले जाकर रख देता और ठाकुर जी उसको बोले कि 'तुम हमारे संग गैय्या चराने चलो।' वह दिन में गैय्या चराने चला जाता तो कई दिन की भोजन सामग्री प्रसाद इकट्ठी हो गयी, तो गौसाई जी के सेवकों ने उनसे कहा- महाराज ! वहाँ प्रसाद ले जाना तो बेकार है, वह खाता ही नहीं है कितने दिन हो गये है ।
फ़िर बुलाया उसको। बोले - क्यू नहीं खाता है ? बोला महाराज ! सुबह गौसेवा करता हुँ, शाम को भी गौसेवा करता हुँ, रात को भी जो बन जाये सेवा करता हुँ और दिन में भी ठाकुर जी कहते है हमारे संग गैय्या चराने चलो तो मैं गैय्या चराने चला जाता हुँ। बोले - गौचारण करके लौट के आओ तब लेना चाहिये। तब बोला तब खायें केसे ? वहा ठाकुर जी को गोपियां बढ़िया - बढ़िया छाक दे आती, ठाकुर जी अपने साथ ही बेठाकर खिलाते हैं, कहते हैं तुम भी खाओ, तो हम भी खा लेते हैं, वहा इतना पेट भर जाता है कि फिर यहाँ पर खाने की इच्छा नहीं रहती है।
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बडा आशचर्य है कि इसकी गौसेवा से संतुष्ट हो गये उसके उपर ठाकुर जी की गौचारण लीला का उसको अनुभव होने लगा और अब ऐसा प्रेम बढा, ऐसा बढा कि ठाकुर जी अब इस ग्वारिया भगत के आसन पर ही कई बार सोने चले जाते हैं, अपने निज मंदिर को छोड़कर। 
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अब ग्वारिया का तो कैसा आसन होता होगा। पुरानी- सी, रज लिपटी हुई। ऐसे ही बेचारा भोला- भाला भगत तो था ही, बिना पढा लिखा, उसकी गुदडी़ पर ठाकुर जी आकर सो जाते हैं, तब श्री गौसाई जी ने विचार किया कि ठाकुर जी को ही रात को पीडा होती है , क्यूँ ना इस गवारिया को ही ठाकुर जी के पास कर दिया जाये तो उस गवारिया से कहा "देखो, तुम्हें रात को तो कोई सेवा रहती नहीं है तो, रात को मंदिर कि द्वार पर तुम सो जाया करो. वहीं अपना कपडा ले आया करो, लठिया लेकर बेठो, जब तक इच्छा हो, नाम जप करो, और जब नींद आ जाये तो सो जाया करो। बोला - जो आदेश महाराज। वहीं आकर सोने लगा।
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एक दिन सो रहा था, तो सोते सोते उसे कुछ आवज सुनाई पडी कि मंदिर का द्वार खुला, तुरंत लठिया लेकर बेठ गया कि हमें तो द्वारपाल बनाया गया है, यह कौन घुसा? किसने द्वार खोला ? देखा तो पूरे आभूषणो से सुसज्जित श्रीनाथ जी मंदिर से बहार पधारे। देखता रहा भगत. ठाकुर जी गये, पीछे से राधारानी जी गयी और गोपियां गयी तो यह विचार करने लगा की अरे ! श्री गौसाई जी ने तो मंदिर में अकेले ठाकुर जी को पधार रखा है, इसमें इतनी लुगाई कहाँ से घुसी थी ?
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ऐसा वह मन में सोचने लग गया और ठाकुर जी के पीछे हो चल दिया, कि ये रात को कहाँ जा रहे हैं, देखू तो सही. शरद पूर्णिमा की रात थी ठाकुर जी जतिपुरा से निकलकर चंद्रसरोवर पधारे. जहाँ सुरदास जी की बेठक वह महारासस्थली है, वहाँ ठाकुर जी आये और दिव्य वाद्य बजने लगे, महारास होने लगा. उस गवारिया भगत को महारास का दर्शन होने लगा, शंकर जी को जिस रास का दर्शन करने के लिये गोपी बनना पडा, उसको बिना लहन्गा फ़रिया पहने ही महारास का दर्शन हो गया. 
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आज के रास में विचित्र लीला यह हुई कि पहले ठाकुर जी अंतर्धान होते थे, आज के रास मे श्री जी अन्तर्धान हो गईं और ठाकुर जी को श्री जी का वियोग व्याप्त हो गया. राधे- राधे कहकर भगवान विलाप करने लगे. अब कहीं मुरली गिर गयी, कहीं मोर मुकुट गिर गया. अब तो ज्यों-ज्यों ठाकुर जी के श्रीअंग से आभूषण गिरते जायें, वह ग्वाल भगत उठाकर सबको पोटली मे बाँध ले. 
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सबेरा हुआ. ठाकुर जी की मंगला आरती का समय हुआ, ठाकुर जी मंदिर में पधारे वह ग्वाल भगत भी पीछे से आकर बेठ गया. गौसाई जी ने स्नान करके ज्यों ही मंदिर के भीतर प्रवेश किया तो देखे शयन के बाद उतारे हुए सभी आभूषण गायब हैं. गवाल भगत को बुलाया, बोले- क्यूँ रे कहा गया था ? मंदिर के सब आभूषण कहाँ चले गये ? तो उसने कहा महाराज ! सबके सामने नहीं अकेले में बताऊँगा. कहा अब बताओ - क्या बात है ? कहे - अरे महाराज - तुम इनको जितने सीधे समझते हो उतने सीधे जे है नहीं, ये तो मंदिर में बहुत सी स्त्रियां घुसी हुई थी, आधी रात को ये मंदिर से बाहर गये तो हमने सोचा क्या पता जंगल में रात में इनका कुछ बिगड़ ना जाये, कहीं हिन्सक पशु इन पर हमला ना कर दे तो हम लाठी लेकर इनके सुरक्षा में इनके पीछे चल दिये । वहा ऐसी- ऐसी लिलायें हुई. एक कोई बहुत बहुत सुंदर थी, वह जेसे ही कहीं जाकर छिप गयी, वे रोने लगे उनका नाम लेकर, आभूषण गिरने लगे अब जो जो आभूषण गिरते चले गये, उसे हमने उठा लियो. ये पीताम्बर है और यह आभूषण है।
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गौसाई जी ने उसे हृदय से लगा लिया और कहा - केवल गौसेवा से भगवान की लीला के दर्शन और भगवान की नित्यविहार लीला में प्रवेश हो गया।
पुस्तक :- गौरक्षा एवं गौसंवर्धन, गीताप्रेस गौरखपुर
*राधे राधे, जय गौमाता*

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