शनिवार, 16 सितंबर 2017

= ५० =

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू मन ही सौं मल ऊपजै, मन ही सौं मल धोइ ।*
*सीख चली गुरु साध की, तो तूँ निर्मल होइ ॥* 
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साभार ~ SK Mehta

मन के मैल को दूर कर आत्मानंद से तृप्त हो जाओ; जिस प्रकार दूध में घी व्याप्त रहता है और मंथन करने से ऊपर आ जाता है, उसी प्रकार तुम में परम पुरुष व्याप्त है। साधनारूपी मंथन से तुम उनको पा जाओगे। परम पुरुष तुम्हारे भीतर है, इस देवता को तुम बाहर की पूजा से नहीं प्राप्त कर सकते। उसके द्वारा तो तुम उससे और दूर हटते जाते हो।
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लोग कहते है, 'यहां तीर्थ है, इस कुंड में स्नान करने से शत अश्वमेध के बराबर पुण्य की प्राप्ति होती है।' सच्चा तीर्थ तो आत्मतीर्थ है जहां पहुंचने के लिए न तो एक पाई खर्च होती है और न ही सेकेण्ड का समय लगता है। उपवास मन के भीतर छिपे हुए परम पुरुष के निकट वास करने का प्रयास है। यही उपवास का सच्चा अर्थ है। इस क्रिया में संतुलित भोजन से सहायता मिलती है। इसका अर्थ यह नहीं है कि भोजन नहीं करने से परमात्मा की प्राप्ति होती है।
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नदी सूख गई है, ऊपर बालू है, किंतु बालू के नीचे स्वाभाविक रूप से छना हुआ निर्मल पानी है। ऊपर से बालू हटाओ और निर्मल जल से अपनी प्यास बुझाओ। मन के मैल को दूर करो और आत्मानंद से तृप्त हो जाओ। ज्ञानी के कथित ज्ञान में दो अवगुण हैं, आलस्य और अहंकार। घमंडी परमात्मा से बहुत दूर रहता है। आलस्य में सबसे अधिक भयानक है आध्यात्मिक आलस्य।
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आज देर हो गई, साधना नहीं करेंगे, कल ठीक से कर लेंगे। सिनेमा-नाटक-भोजन सब में बराबर समय दिया जाता है, और कटौती होती है केवल साधना के समय में से। नींद आती है केवल भगवत चर्चा के समय। लोगों को कहानी याद होगी कि राम के वनवास काल में चौदह वर्ष तक लक्ष्मण ने जागकर उनके रक्षक के रूप में पहरेदारी की।
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एक दिन उनको नींद आ गई। उस वीर ने तब निद्रा पर धनुष बाण से हमला कर दिया। निद्रा बोली, 'आप कैसे वीर हैं ! महिला पर शस्त्र उठाते हैं!' लक्ष्मण बोले, 'क्षमा कीजिए, अभी आप नहीं आइए। जब राम का अयोध्या में राजतिलक हो जाए तब आप आ सकती हैं।'
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फिर जब राम के साथ तिलक समारोह में लक्ष्मण उनकी सेवा कर रहे थे तब निद्रा ने उन पर हमला बोल दिया। लक्ष्मण जी ने फिर विरोध किया, तो निद्रा ने फिर पूछा, 'मैं कहां जाऊं!' लक्ष्मण बोले, 'जब किसी धर्म सभा में कोई अधार्मिक पहुंच जाए, तुम उसी की आंखों पर बैठ जाओ।'
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उसी समय से निद्रा का यह क्रम चालू है। कर्मी में एक ही दोष होता है, वह है अहंकार। किन्तु भक्त जानता है कि मैं कुछ नहीं हूं, परम पुरुष ही सब कुछ है। कर्म का श्रेय मेरा नहीं है, इसलिए भक्त में अहंकार नहीं आता है। और आलस्य भी नहीं आएगा क्योंकि वे सोचेगा कि मेरे भगवान का काम मैं नहीं करूंगा तो कौन करेगा, मैं किसके इंतजार में रहूंगा कि वह उनका काम करे।'
--श्री आनंदमूर्ति
जय गुरू

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