रविवार, 17 सितंबर 2017

आज्ञाकारी आज्ञा भंगी का अंग ७(५-८)

#daduji


卐 सत्यराम सा 卐
*दादू मनहीं सौं मल उपजै, मन हीं सौं मल धोइ ।*
*सीख चली गुरु साध की, तौ तूं निर्मल होइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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**आज्ञाकारी आज्ञा भंगी का अंग ७**
रज्जब रमणी२ रासभा१, कपट सु कठ३ गढ़ माँहिं ।
शिष सिंह खात पलाइगे४, गुरु गिरि दूषण नाँहिं ॥५॥
गधा१ काष्ठ३ के पिंजरे में है और नारी२ कपट के किले में है । यदि सिंह पिंजरे में घुसेगा१ तो उसे गधा ही खाने को मिलेगा, इसमें पर्वत का क्या दोष हे ? नहीं घुसता तब तो पर्वत में वन्य मृग मिल सकता था । वैसे ही शिष्य गुरु की आज्ञा न मानना रूप कपट-किले में घुसेगा तो उसे नारी का उपभोग ही मिलेगा । इसमें गुरु का क्या दोष है ? कपट नहीं करता, यथार्थ रूप से गुरु आज्ञा में रहता तो अवश्य ब्रह्मानंद प्राप्त होता ।
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गुरु अगस्त उर१ चढ़त ही, शिष समुद्र नभ जाँहिं 
जन रज्जब उतरे तहाँ, सो खारे क्षिति२ माँहिं ॥६॥
६ में आज्ञाकारी और आज्ञा भंगी का परिचय दे रहे हैं - अगस्त्य ऋषि के हृदय१ में समुद्र शोषण की बात आते ही समुद्र नभ में चला गया अर्थात सूख गया और जो जल पृथ्वी२ पर उतरा वह खारा हो गया । वैसे ही जो गुरु आज्ञा में रहते हैं, वे शिष्य तो ब्रह्म में लय हो जाते हैं, और आज्ञा में नहीं रहते वे पृथ्वी पर कामादि क्षार से युक्त होते हैं ।
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आज्ञा भंगी मन मुखी, व्यभिचारी व्रत नाश ।
रज्जब रीता रती बिन, नाँहिं चरण निवास ॥७॥
७ में आज्ञा भंगी का परिचय दे रहे हैं - गुरुजनों की आज्ञा न मानने वाला मन की इच्छा के अनुसार चलता है, सदव्रतों का नाश करके, व्यभिचारी बनता है किन्तु आज्ञा मानना रूप रती बिना भक्ति ज्ञानादि से रहित ही रहता है । प्रभु के चरणों में निवास नहीं कर सकता ।
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आज्ञा में आगे रहैं, गुरु गोविन्द हजूर ।
जन रज्जब दिल दूसरे, द्वै ठाहर तैं दूर ॥८॥
८-१२ में आज्ञाकारी तथा आज्ञा भंगी का परिचय दे रहे हैं - जो गुरुजनों की आज्ञा मानने में आगे रहता है, वह गुरु और गोविन्द के अति निकट रहता है । जिसका मन आज्ञा मानने से विमुख रहता है, वह गुरु के ज्ञान रूप स्थान से और गोविन्द के साक्षात्कार रूप स्थान से दूर ही रहता है अर्थात न उसे ज्ञान होता है और न गोविन्द मिलते हैं ।
(क्रमशः)

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