卐 सत्यराम सा 卐
*श्री दादू अनुभव वाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*भेष का अँग १४*
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दादू माया कारण मूंड मुंडाया, यहु तो योग न होई ।
पारब्रह्म सौं परिचय नाँहीं, कपट न सीझे कोई ॥२८॥
मायिक पदार्थों के उपभोग और संग्रह के लिये शिर - मुँडन करा कर भेष बना लिया किन्तु परब्रह्म से परिचय होने का कुछ भी साधन नहीं लिया, उक्त व्यवहार तो योग नहीं कहा जाता और ऐसे कपट से कोई भी ब्रह्म - प्राप्ति रूप सिद्धावस्था को भी प्राप्त नहीं होता ।
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*अन्य लग्न व्यभिचार*
पीव न पावे बावरी, रचि रचि करे श्रृंगार ।
दादू फिर फिर जगत सौं, करेगी व्यभिचार ॥२९॥
२९ - ३१ में कहते हैं - परमात्मा को छोड़ अन्य से प्रेम करना व्यभिचार है - हे पाखँडपूर्ण व्यक्ति रूप बावरी सुन्दरी ! विषयों में लग्न रख करके बड़ी सावधानी से रुचि पूर्वक भेष रूप श्रृंगार करने पर भी परमात्मा - पति को प्राप्त नहीं कर सकेगी, प्रत्युत पुन: २ विषय प्राप्ति के लिये सँसारी प्राणियों से प्रेम रूप व्यभिचार करेगी ।
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प्रेम प्रीति सनेह बिन, सब झूठे श्रृंगार ।
दादू आतम रत नहीं, क्यों माने भरतार ॥३०॥
सँतों से प्रेम, नाम चिन्तन से प्रीति और परमात्मा से स्नेह बिना सभी भेष रूप श्रृंगार व्यर्थ हैं । जब तक जीवात्मा परमात्मा में अनुरक्त न हो तो तब तक परमात्मा उसे कैसे अपना भक्त मानेंगे ? भगवान् भेषादि बाह्य चिन्हों से ही भक्त नहीं मानते ।
(क्रमशः)

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