मंगलवार, 26 दिसंबर 2017

= २५ =


#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*परगट खेलैं पीव सौं, अगम अगोचर ठांव ।*
*एक पलक का देखणा, जीवण मरण का नांव ॥* 
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साभार ~ स्वामी सौमित्राचार्य 

“प्रपत्ति” ~ ‘नमामि भक्तमाल को’
**भगवद्भक्तों के भक्त श्री लाखा जी**
श्री लाखा जी ने श्री रूपनारायण जी से संप्रदाय की शिक्षा प्राप्त की थी और श्री हरिव्यास देवाचार्य जी से दीक्षा प्राप्त करी थी. ये गुनीर नामक गाँव में गंगा जी के तट पर झोंपड़ी बनाकर रहते थे. गंगा-स्नान करने का इनका नित्य-नियम था. धीमे-धीमे गंगा जी का रास्ता बदला और वह कुटी से दूर हो गयीं. अब लाखा जी बूढ़े हो चुके थे. एक दिन ग्रीष्म ऋतु में यह गंगा-स्नान के लिये चले. रेत तप रही थी और ये नंगे पैर धीमे-धीमे चल रहे थे.
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बहुत परेशानी से यह गंगा जी तक पहुँचे. इन्हें यह एहसास हो गया था कि अब दोबारा यह गंगा जी तक नहीं पहुँच पाएंगे. इन्होंने बड़ी ही दीनता से माँ गंगा से विनय करी कि वो अपने पुराने स्थान पर लौट आयें वरना ये वहीं रुक जायेंगे. श्री गंगा जी की धारा से आवाज़ आयी कि श्री लाखा जी कुटिया पर लौटें, गंगा जी पीछे से आ रही हैं. यह सुनकर लाखा जी बहुत प्रसन्न हुए और वापस लौट आये. गंगा जी भी अपने पुराने स्थान पर लौट आयीं. इसे देखकर सभी की लाखा जी के प्रति श्रद्धा हो गयी.
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जब जीवन में भक्ति आती है तब जीवन में भगवान भी आ जाते हैं. ‘भक्ति’ है भगवान को अपना मानना. जब भगवान में पूरा अपनापन हो जाता है तब वो भक्त के पास होते हैं, भक्त की सुनते हैं और अपनी कहते हैं. बस भगवान से बात करने के लिये भक्ति का मुँह चाहिए, भगवान को सुनने के लिये भक्ति के कान चाहिए और भगवान को देखने के लिये भक्ति की आँख चाहिए.
“स्वामी सौमित्राचार्य”

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