卐 सत्यराम सा 卐
*काया मांही भय घणा, सब गुण व्यापैं आइ ।*
*दादू निर्भय घर किया, रहे नूर में जाइ ॥*
*दादू दिन दिन भूलै देह गुण, दिन दिन इंद्रिय नाश ।*
*दिन दिन मन मनसा मरै, दिन दिन होइ प्रकाश ॥*
================================साभार ~ @https://oshoganga.blogspot.com
ज्ञानी मृत्यु मे प्रवेश कर जाता है, क्योँकि वह जानता है कि मृत्यु में प्रवेश करके अमृत का शुद्धतम अनुभव होगा। विपरीत अनुभव को आसान और प्रगाढ़ बना देता है। सफेद रेखा खीँच देँ काले पट्ट पर, चमक कर दिखाई देती है। बादल घिरेँ हो काले, बिजली चमकती है, साफ दिखाई पड़ती है। ज्ञानी मृत्यु में प्रवेश कर जाता है - आनंदपूर्वक, अहोभावपूर्वक - जिससे भीतर जो अमृत छिपा है, चारोँ तरफ मृत्यु के काले बादल घिर जाएं, तो वह अमृत की शुभ्र रेखा है, वह कौँध जाए और अनुभव स्पष्ट हो जाए कि मृत्यु सदा मरणधर्मा की होती है, मुझ अमृतधर्मा को कभी नहीँ घटती।
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इसीलिये अज्ञानी, कि बिलकुल मर न जाए, आत्मा अमर है, ऐसा विश्वास करता है। ये विश्वास ज्ञान के कारण नहीँ, भय के कारण है। मनुष्य किस आत्मा की बात कर रहा है जो अमर है, जिसका उसे कोई अनुभव नहीँ है; जिसकी किंचित मात्र भी प्रतीति नहीँ हुई। मनुष्य का भय मनुष्य का सिद्धांत बन जाता है। प्रतीति तो मनुष्य की देह की है, मै देह हूं और ज्ञानी की प्रतीति है कि देह है ही नहीँ। इसीलिये अज्ञानी से कहा जाता है कि देह सत्य है, तुम्हारा संसार सत्य है। इसमें कोई भूल-चूक नहीँ है। भूल है कि शरीर को आत्मा समझे हुए है।
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चाहता अज्ञानी भी है कि शरीर को आत्मा न समझे क्योँकि शरीर दुख के अतिरिक्त कुछ देता नहीँ। शरीर को मृत्यु भी आती है, इसीलिये वह चाहता है खोजना उसे जो शरीर नहीँ है, तो अमरत्व का भी पता चल जाए। अज्ञानी का लोभ भी,ज्ञानी से ये सुनकर की आत्मा आनंद है,जागता है और वह भी उत्सुक हो जाता है उस आनंद को जान लेने में। यात्रा शुरु हो जाती है। लौटना मुश्किल है तब क्योँकि ये रास्ता ऐसा है कि लौटना नामुमकिन है। ज्ञान से वापसी असंभव है। जहां तक मनुष्य आ गया, वहां से आगे ही जाया जा सकता है, वापस नहीँ जाया जा सकता। ऐसे धीरे-2 ज्ञानी अज्ञानी को रास्ते पर लाता है।
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'देह आदि सत्य है,ऐसा ज्ञानियोँ को समझाने के लिये प्रारब्ध कर्म की बात नहीँ कही जाती।' 'पर अज्ञानियोँ का समाधान करने के लिये प्रारब्ध कर्म की बाता कही जाती है।' 'वास्तव मे निर्गुण, क्रियारहित, सूक्ष्म, स्वतःसिद्ध, शुद्ध-बुद्ध अद्वैत बह्म ही सब है, और कोई भी नहीँ।' सब असत्य है, वास्तव में। सत्य इसलिये प्रतीत होता है क्योँकि मनुष्य के पास असत्य को जन्म देने वाला मन है। स्वप्न पैदा करने वाला मन है। सत्य देख सकने वाला चक्षु मनुष्य के पास नही है।
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वह ज्ञान-चक्षु कैसे जगे - जिससे मनुष्य देख सके, कि क्या है सत्य? छोटे बालक के लिये खिलौने वास्तविक हैँ। उसकी गुड़िया की टांग टूट जाए तो वह वैसे ही रोता है, जैसे वस्तुतः किसी की टांग टूट गई हो। रात उसे नीँद नहीँ आती। उसकी गुड़िया या गुड्डा उसके पास न रखा हो, तो उसे वैसी ही बेचैनी होती है जैसी मनुष्य को वास्तविक प्रेमी के पास न होने पर होती। बच्चे के लिये गुड्डा - गुड़िया अभी वास्तविक है। बड़ा होकर ये ही बच्चा हंसता है कि किस खेल मे उलझा था।
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बड़े हो जाने पर स्वयं ही गुड्डे-गुड़िया को फेंक आएगा। क्या हुआ? गुड्डे-गुड़िया वो ही हैँ, इस बच्चे को क्या हुआ? इसकी बुद्धि विकसित हो गई, ज्यादा देखने मे समर्थ हुआ। लेकिन इतने से कुछ न होगा, गुड्डे-गुड़िया की जगह दूसरे गुड्डा-गुड़िया आ जाएंगे, जो जीवित होँगे। पहले गुड़िया को सीने से लगा कर सोता था, अब स्त्री को सीने से लगा कर सोएगा। गुड्डे-गुड़िया बदल गए, लेकिन चित्त? फिर इस मन के ऊपर उठने के उपाय है। बहुत कम लोग उठ पाते हैँ। बचपन से तो सभी लोग जवान हो जाते हैँ। क्योँ? क्योँकि जवानी के लिये किसी को कुछ करना नहीँ होता, वह प्राकृतिक विकास है। लेकिन आध्यात्मिक विकास स्वयमेव नहीं होता।
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आध्यात्मिक विकास के लिये मनुष्य को कुछ करना होता है। कुछ करेगा तो। वह विकास मनुष्य के निर्णय पर निर्भर है। प्रकृति उसको नियंत्रित नहीँ करती। वह मनुष्य की स्वतंत्रता है। इसीलिये केवल गिनती के कुछ सिद्ध पुरुष हो पाते हैं, क्योँकि श्रम, साधना। मनुष्य जिस क्षण जाग कर देखेगा उस क्षण सारा जगत बच्चोँ के खेल जैसा लगेगा। उतना प्रौढ़ हो जाने पर पीछे का सारा झूठ हो जाता है।
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'त्याग कर सकने में अथवा ग्रहण कर सकने मेंअशक्य' जिसे मनुष्य छोड़ नहीँ सकता और पकड़ भी नहीँ सकता-ऐसा। इसका क्या अर्थ है? अक्सर लोग कहते हैँ, परमात्मा को खोजना है। खोया कब? कहां? क्योँकि खोया हो तो ही खोजा जा सकता है, खोया ही न हो तो बड़ी समस्या है! परमात्मा है मनुष्य का स्वभाव, उसे खो कैसे सकते हैँ? भूल सकते हैं, विस्मरण हो सकता है। खो नहीँ सकते। विस्मरण हो सकता है। दृष्टि कहीँ और उलझ गई हो और पास का स्मरण न रहे। ये हो सकता है। लेकिन खो नहीँ सकते। जिसे मनुष्य खो नहीँ सकता, वही है स्वभाव। यदि खो सकता है, तो वह स्वभाव नहीँ। अग्नि यदि आग्नेयता खो दे तो उसका स्वभाव न रहा। आग्नेयता अग्नि का स्वभाव है।
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