卐 सत्यराम सा 卐
*काया की संगति तजै, बैठा हरि पद मांहि ।*
*दादू निर्भय ह्वै रहै, कोई गुण व्यापै नांहि ॥*
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साभार ~ सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र
एक बार महाराजा युधिष्ठर अन्दर बैठे हुए थे । पुराने जमाने में पुराने किलों में अनेक दरवाजे, अनेक ड्योढ़ियाँ हुआ करती थीं । राजा अन्दर रहता था । इसलिये कोई भी आये तो भीम से मिलता था । किसी ने आकर कहा - "युधिष्ठिर से कोई बात पूछनी है, क्या मैं अन्दर जा सकता हूँ ?" भीम ने कहा "वे बहुत व्यस्त हैं, मुझे बताओ क्या पूछना है ?" उसने कहा "आज प्रातःकाल जब मैं कुएँ पर नहाने गया तो कोई व्यक्ति डोल{रस्सी लगा पानी भरने का बाल्टी} लेकर आया । उसके साथ दस व्यक्ति दस बड़े घड़े लेकर आये । उन्होंने एक डोल पानी निकाला और उसी से दस घड़ों को पूरा भर दिया । यह देखकर मुझे आश्चर्य हुआ कि एक बाल्टी पानी से दस घड़े कैसे भर गये ? मैंने उनसे कहा इन दस घड़ों का पानी वापिस उस एक डोल अर्थात् जिस बाल्टी से पानी भरा था उस डोल में डालो तो उन्होंने जब दस घड़ों का पानी उस एक डोल में डाला तो वह डोल आधा ही भर पाया जबकि वह डोल दस घड़ों की अपेक्षा छोटा ही था । अतः मैं पूछने आया हूँ कि इसमें क्या रहस्य है ?" भीम ने कहा "तुम्हारा प्रश्न बड़ा मुश्किल है, मुझे पता नहीं, तुम अन्दर चले जाओ ।"
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नारायण ! दूसरी ड्योढ़ी में अर्जुन थे । उस व्यक्ति ने अर्जुन से कहा "मुझे युधिष्ठिर से कोई बाद पूछनी है, क्या मैं अन्दर जा सकता हूँ ? "अर्जुन ने कहा - "पहले मुझ से पूछ लो, वे तो कार्य में व्यस्त है ।" उसने कहा - "आज मैं जंगल में गया था । वहाँ ग्वाला गायों को चरा रहा था । देखता हूँ कि वहाँ एक गाय ब्याह गई और उसके बछड़ी हुई और वह बछड़ी का दूध पीने लग गई । मैं पूछना चाहता हूँ यह क्या चीज है ?" अर्जुन ने कहा "मेरी समझ में नहीं आया कि यह क्या हुआ ? तुम युधिष्ठिर के पास चले जाओ।"
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आगे की ड्योढी पर नकुल बैठे थे । उस व्यक्ति ने कहा "क्या मैं अन्दर जा सकता हूँ ? कुछ पूछना चाहता हूँ ।" नकुल ने कहा - "पहले मुझ से पूछ लो ।" उसने कहा "मेरा पड़ोसी अपने बगीचे में सब्जी बोता है और उस सब्जी की रक्षा के लिये उसने बगीचे के चारों तरफ काँटों की बाड़ लगा रखी है । आज मैंने सबेरे - सबेरे देखा कि उस बाड़ के काँटे झुककर सब्जियों को खा रहें हैं । काँटे कैसे सब्जी खा रहे हैं, यह मेरी समझ में नहीं आया ।" नकुल ने कहा "यह मेरी समझ में भी नहीं आया, अन्दर चले जाओ ।
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अन्दर सहदेव था । उसने पूछा - "अन्दर जा सकता हूँ ?" सहदेव ने भी कहा - "अपना काम बताओ ।" उसने कहा कि "मैं पहाड़ पर घूमने गया था । उस पहाड़ से चट्टान गिरने लगीं और उससे बड़े - बड़े पेड़ गिर रहे थे । उसमें एक बहुत हल्का मकड़ी का जाला था । उस जाले में एक पत्थर फँस गया, वहीं रुका रहा । यह रहस्य की बात समझ में नहीं आई ।" सहदेव ने कहा - "मुझे पता नहीं । तुम अन्दर चले जाओ । "जैसे ही वह युघिष्ठिर के सामने पहुँचा तो उसे तुषार - कण, पाले की बून्द, सूर्य के सामने उड़ जाती है उसी प्रकार वह व्यक्ति वहाँ रहा ही नहीं, उड़ गया । युधिष्ठिर ने मानो उसे देखा ही नहीं, और वह देखते ही देखते तुरन्त खत्म हो गया ।
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नारायण ! भोजन का समय हुआ तो सब भाई इकट्ठे हुए और भोजन करने बैठे तो भीम ने कहा "एक आदमी कुछ पूछने आया था, आपने क्या जवाब दिया ?" युधिष्ठिर ने कहा, "उसने मेरे से तो कुछ नहीं पूछा और मेरे पास तो कोई आया भी नहीं ।" तब भीम ने कहा "उसने मुझ से पूछा कि एक गाँव के अन्दर एक छोटे डोल पानी से दस घड़े भर गये लेकिन दस घड़े से एक छोटा डोल नहीं भरा । "युधिष्ठिर ने कहा "अच्छा, यह तो बड़ा मामूली प्रश्न है । वह कोई साधारण व्यक्ति नहीं था, वह कलि था, कलि । अन्य युगों में लोग संतुष्ट होते हैं इसलिये तब एक कमाता है और दस का पेट भरता है । लेकिन जब कलियुग आता है तो दस की कमाई से एक का पेट नहीं भरता है । चाहे जितने पदार्थ बढ़ते जायें, संतोष के अभाव में मनुष्य को पूरा नहीं पड़ता ।" आज से पचास - साल पहले विधवा और भी एकादशी के दिन मन्दिर में जाती थी, तो कुछ सीधा अर्थात् आटा - घी आदि सामग्री लेकर जाती थी कि वहाँ पण्डित जी को देकर आयेंगी । उसे पास तो जुगाड़ हो जाता था । आज दस हजार रुपया महीना पाने वाला भी कहता है "मेरी दान देने के बड़ी इच्छा होती है लेकिन क्या करूँ, घरखर्च से कुछ बचता ही नहीं है ।" यदि हम उससे पूछते हैं "मान लिया कुछ नहीं बचता तो यह बताओ कि तुम्हारी घरवाली की आल्मारी में कितनी साड़ियाँ हैं ?" तो कहता है "गिना तो नहीं सौ साड़ियाँ तो होंगी ही !" सौ साड़ियाँ होने पर भी किसी दिन कोई एक साड़ी लेने के लिये आ जाये तो कहती है "इसमें देने लायक कोई नहीं है ।" इसलिये "दस डोल पानी से एक डोल कैसे नहीं भरा - यह प्रश्न पूछने वाला कलियुग था । उसने अपनी सूचना दी। लेकिन मेरे सामने आते ही यह तो मानो जैसे सूर्य के सामने आते ही तुषार कण अर्थात् भूसे के कण जैसे उड़ते हैं वैसे ही उड़ गया ।"
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नारायण ! अर्जुन ने कहा - मुझसे तो उसने दूसरा ही प्रश्न पूछा था । जैसे ही गाय ब्याई वैसे ही वह तत्काल बड़े - बड़े स्तनों के साथ पैदा हुई अपनी बछड़ी का दूध पीने लगी । यह कैसे हो सकता ? युधिष्ठिर ने कहा - यह बड़ी सीधी बात है । गृहस्थ ही गाय है क्योंकि सबको उसी से प्राप्त होता है । उस गृहस्थ रूपी गाय से कन्या रूपी बछड़ी पैदा होती है । पहले तो कन्या माता - पिता पर आश्रित रहती थी परन्तु अब विपरीत हो जायेगा कि गृहस्थ अपनी कन्या की ही कमाई खाने लगेगा, कन्या के घर जाकर रहेगा। कन्या का दान नहीं होगा वरन् कन्या का आदान - प्रदान होगा । आजकल लोग कहते ही यह हैं कि लड़के - लड़की में क्या फर्क है ? लड़के की कमाई ले सकते हैं तो लड़की की कमाई क्यों नहीं ले सकते, वह भी लड़के के जैसी है ।
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नकुल ने कहा मुझसे उसने पूछा था कि बाड़ खेत को कैसे खा गई ? युधिष्ठिर ने कहा यह भी सीधी सी बात है । रक्षक अर्थात् राजपुरुष ही भक्षक हो जायेगा । पहले हम श्रीमद्भावतजी में पढ़ते थे "नृपाश्चौरा भविष्यन्ति सम्प्राप्ते तु कलो युगे" अर्थात् राजा डकैती करेंगे । सोचते थे कि इसका कुछ और ही तात्पर्य होगा । समझ में नहीं आता था । अब जब राजपुरुष खुले आम घोषणा करते है कि हम "रेड" करेंगे, डकैती को अंग्रजी में "रेड" कहते हैं, तो ऋषियों की कही हुई बात ठीक समझ में आ गई । उन्हें इस बात की शर्म - लिहाज भी नहीं रह गई कि कम से कम अपने आपको डाकू कहें तो नहीं । इसलिये कलि ने बता दिया कि राजा रक्षक ही प्रजा को खाने लगेंगे ।
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नारायण ! सहदेव ने कहा मुझसे भी उसने प्रश्न पूछा था कि बहुत बड़ा शिलाखण्ड टूटकर एक मकड़ी के जाले में कैसे रुका रह गया ? युधिष्ठिर ने कहा यह उसने अपना अन्तिम संदेश दिया कि पापरूपी पहाड़ टूटेगा और बड़े - से - बड़े साधन मनुष्य की रक्षा करने में कुछ काम नहीं आयेंगे, परन्तु ज्ञानरूपी साधन ही मनुष्य को बचा ले जायेगा । शरीर मन बुद्धि इत्यादि को हम पूरी तरह से ठीक कर सकें, यह सम्भव न होने पर भी, परमात्मा ही मेरे अन्दर बैठा हुआ सब रूपों को धारण करने वाला है, यह मानकर उस परमात्मा के ही सहारे में हो जायेंगे तो इन सब कठिनाइयों से बच जायेंगे । यह स्थिरता ही वह हल्का मकड़ी का जाला है, कोई दीखने वाली चीज नहीं है ।
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नारायण ! इसी प्रकार लगता है, ज्ञान का साधन केवल विचार मात्र है, इससे बड़े - बड़े पाप रूपी पहाड़ कैसे रुक जायेंगे ? जब अपने आपको पाँच कोशों से अलग कर लोगे तो पंचकोशों को चलाने वाला परमात्मा अपने आप उनको चलायेगा । जब तक हम कर्त्ताभाव से सुधरने का प्रयास करेंगे तब तक नहीं सुधरेगा । जब इसको परमात्मा को अर्पण कर देंगे तो परमात्मा स्वयं ही इसको सम्हाल लेगा । आचार्य भगवान् शङ्कर स्वामी जी एक जगह कहते हैं कि हे परमेश्वर ! मैं अपने इस मन को नियन्त्रण करने में समर्थ नहीं हो पा रहा हूँ क्योंकि यह पहले ही चंचल है ।
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