卐 सत्यराम सा 卐
*दादू कहै सतगुरु शब्द सुनाइ करि, भावै जीव जगाइ ।*
*भावै अन्तरि आप कहि, अपने अंग लगाइ ॥*
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साभार ~ सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र
नारायण ! एक देश था अलखपुर । वहाँ के राजा को सत्संग का बड़ा शौक था । एक बार एक परमहंस संन्यासी महात्मा वहाँ पहुँचे और राजा के यहाँ चातुर्मास्य उन्होंने किया । जब जाने लगे तो उन्होंने सोचा इस राजा को कोई चीज देनी चाहिए, इसने बहुत सेवा की है । उन्होंने राजा से कहा "कल रात बारह बजे एकान्त में अकेले मेरे पास आना, तुम्हें कोई चीज दूँगा ।" राजा ने कहा ठीक है। अगली रात को राजा ने अपने नाई को मशाल लेकर चलने के लिए साथ लिया और महात्मा के पास चल दिया । राजा तो महात्मा की कुटिया के भीतर चला गया, नाई बाह खड़ा हो गया । महात्मा ने राजा को "परकाय - प्रवेश" की विद्या सिखा दी । किसी मुर्दे में कैसे प्रवेश किया जा सकता है यह विद्या उसे सिखा दी । यह भी बता दिया कि जिस शरीर को छोड़कर जाओ उसे बचाकर रखना जरूरी होता है । राजा ने सारी बात समझ ली ।
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नाई भी बहुत चतुर हुआ करता है "नराणां नापितो धूर्तः ।" उसने सोचा, अवश्य कोई रहस्यविद्या राजा को महात्मा देंगे, अतः वह भी कान लगाकर सुनता रहता था, विद्या वह भी सीख गया । दोनों लौट आये । कुछ समय बीता ।
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नारायण ! रानी के पास एक सफेद कौवा था । उस पर रानी को बहुत स्नेह था । कौवे की आयु पूर्ण हुई । वह मर गया । अकस्मात् मरा अतः रानी साहिबा बड़ी दुःखी हुई , कहने लगी "यह मुझसे कुछ बात ही कर जाता तो यह कष्ट सह्य हो जाता, यह तो यों ही चला गया ।" वह राजा से बोली "तुम कहते हो मैं मरे को जिला सकता हूँ । इसे जिलाकर के दिखाओ ।" राजा ने समझाया भी पर स्त्री का तो हठ होता है, जिद्द पकड़ ली तो पकड़ ली । राजा ने सोचा चलो इतना कहती है तो दो मिनट को इसे जिला दूँ । उसने अपनी विद्या से कौवे के शरीर में प्रवेश कर लिया ।
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वह नाई तो प्रायः हमेशा राजा के पास रहता ही था क्योंकि राजा को किसी भी काम के लिये जरूरत पड़ती है ही । राजा को कौवे के शरीर में गया देख नाई ने सोचा "मुझ पर तो भगवान् की कृपा हो गयी ।" परकायप्रवेश की विद्या तो वह जानता था ही, उसने फटा फट राजाके शरीर में प्रवेव कर लिया । राजा ने जब यह देखा तो स्तम्भित हो गया और सोचा "अब यह जरूर मुझे मार डालेगा।" अतः कौवारूप राजा तुरन्त वहाँ से उड़ गया ।
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काफी समय जंगलों में भटकता कष्ट पाता रहा । धीरे - धीरे कौवों के साथ रहते - रहते अपने आप को सर्वथा कौवा ही समझने लगा । दीर्घकाल के बाद एक बार वह उसी महात्मा के पास हिमालय में पहुँचा जिन्होंने उसे वह अलौकिक विद्या दी थी । उन्होंने उसे देखते ही पहचान लिया । वे पशुभाषा में उससे बोले, "अरे राजन् ! यह रूप लेकर क्या आये ?" वह राजा बोला, "जी हम कौवों का राजा दूसरा है, मैं नहीं ।" महात्मा ने कहा "कौवों का नहीं तू तो अलखपुर का राजा है रे !" कौवा बोला, "अलखपुर का राजा? मुझे नहीं पता है अलखपुर और कौन है राजा । मुझे कुछ नहीं मालूम ।" महात्मा पहचान तो गये ही थे, कहने लगे "अरे ! जरा याद कर । जोर लगा दिमाग पर ।" वह बोला, "जी मैं कहाँ अशुचिभक्षण करने वाला कौवा ! और कहा शुद्ध आहार करने वाला राजा !"
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नारायण ! महात्मा समझ गये - यह निरन्तर अपने कौवे स्वरूप में रहते हुए अपने सच्चे स्वरूप को सर्वथा भूल गया है । उन्होंने धीरे - धीरे उसके अपने ही राजस्वरूप का वर्णन उसे सुनाना शुरू किया । रोज उसे चुग्गा भी देते रहे कि वह कहीं अन्यत्र चला न जावे । स्मृति का नियम है कि यदि धीरे - धीरे किसी चीज को बार - बार दुहराओ तो वह फिर याद आ जाती है । महात्मा ने पुर का, राज्य का, रानियों का वर्णन किया । कौवे के शरीर में स्थित राजा का ध्यान उन बातों में एकाग्र होने लगा । सुनने में रुचि होने लगी । एकाग्र चित्त के कारण उसे स्मृति आ गयी "अरे ! वही मेरा सच्चा स्वरूप है।" उसे खेद और विस्मय हुआ "कहा मैं कौवा बन गया ! क्या मेरी स्थिति हो गयी ! क्या यह संभव है कि मैं पुनः राजा बन जाऊँ ?" एक दिन रोकर महात्मा से कहने लगा "आपने स्मृति तो दिला दी, परन्तु यदि उस भाव को प्राप्त न करूँ तब तो मेरे लिये यह एक महान् कष्ट हो गया। अब उसे पाने का उपाय भी बताइये ।" महात्मा ने ढाढस बँधाया, "उसका भी उपाय होगा ।"
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नारायण ! वे महात्मा उस कौवे को लेकर अलखपुर गये । कौवे को तो उन्होंने छिपाकर रख दिया । शहर के बाहर ही एक मन्दिर में ठहर गये । बहुत से लोग आने लगे । अनेक लोगों की कामनाएँ पूर्ण होने से उनकी ख्याति राजमहल पहुँची। सुनकर रानी भी दर्शन करने आयी । उसे देख महात्मा ने कहा "पूर्व जन्म में तू दैवी शक्ति वाली थी । पर किसी दोष से वह शक्ति तुम्हारी दूर हो गयी। इसलिए तुम्हारा दिव्य अलौकिक सौन्दर्य छिप गया है । मैं तुम्हें यथि तीन दिन का एक अनुष्ठान कराऊँ तो तुम्हारा वह सामर्थ्य और सौन्दर्य प्रकट हो जायेगा ।" स्त्रियों को सुन्दरता का शौक ज्यादा होता ही है । उसने राजा से सारी बात कहीं । राजा ने भी सोचा - मेरी पत्नी है - भोग्या है , इसमें दिव्य सौन्दर्य होगा तो अच्छा ही है। राजा ने स्वयं जाकर महात्मा से कहा "आप अनुष्ठान करना चाहते हैं तो बहुत उत्तम बात है ।" महात्मा ने अनुष्ठान के लिए सत्रह पण्डित और एक बकरे की आवश्यकता बता दी । बकरे की बलि देनी आवश्यक थी । राजा ने सारी व्यवस्था कर दी ।
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नारायण ! तीन दिवस तक अनुष्ठान चला । अन्त में बकरे को मन्त्रों के द्वारा बलि देने के लिए तैयार कर दिया गया तभी महात्मा ने अपनी शक्ति से उसे मरा हुआ कर दिया । फिर वे कहने लगे "अरे ! यह तो बड़ा अनिष्ट हो गया । यह तो बलि से पूर्व ही मर गया। अब तो देवताओं का बड़ा कोप होगा । तुम्हारा राज्यभंग भी हो जायेगा, छत्रभंग भी हो जायेगा । यह रानी भी मर जायेगी । क्या बतावें ? दो मिनट की बात थी । बलि हो गयी होती तो अनुष्ठान पूरा हो गया होता । अगर दो मिनट को यह जी जाये तो काम बन जाये ।" था तो आखिर नाई ही, चाहे शरीर राजा का था । उसने विचार किया कि इतना बड़ा अनिष्ट होने की संभावना है तो इसे दो मिनट को जिला दूँ । वह बोला, "मैं देखता हूँ कुछ हो सकता है कि नहीं।" जैसे ही नाई - राजा ने परकायप्रवेश - विद्या से बकरे में प्रवेश किया वैसे ही महात्मा ने कौवा - राजा को इशारा किया - "यही मौका है, बना ले तू अपना काम ।" उसने तुरन्त अपने पूर्व शरीर में प्रवेश कर लिया । अब नाई बकरा हो गया और राजा पुनः राजा हो गया । बकरे का कान काट कर जेल में उसे बन्द कर दिया ।
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नारायण ! इसे केवल किसी एक राजा की कहानी मत समझना । अलखपुर - अलक्ष्यपुर का राजा जीवरूप से प्रवेश कर संसार में आया और तादात्म्त्याध्यास से इसे ही - कौवे के शरीर को ही - अपना स्वरूप समझने लग जाता है । श्रुतिरूप, वेदरूप संन्यासी उसे कहता है, "यह तुम्हारा सच्चा स्वरूप नहीं । तुम्हारा सच्चा स्वरूप तो शिव है ।" पहले तो इसे समझ नहीं आता । धीरे - धीरे जब शिवस्वरूप का बारम्बार श्रवण करता है तो पाता है "ये लक्षण मुझ में घट तो रहे हैं ।" अन्ततोगत्वा इसे निश्चय होता है मुझे परमात्मा का साक्षात्कार अवश्य करना है । साक्षात्कार के लिये प्रवृत्त होता है "तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् ।" उस परमशिव का दर्शन होने पर इसका कल्याण हो जाता है ।
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