मंगलवार, 26 दिसंबर 2017

= सुमिरण का अंग २०(५-८) =

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卐 सत्यराम सा 卐 
*राम भजन का सोच क्या, करता होइ सो होइ ।*
*दादू राम संभालिये, फिर बुझिये न कोइ ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*सुमिरण का अंग २०*
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रज्जब भजन भण्डार में, दीरघ दौलत१ दोय । 
इहां सुखी संसार मधि, आगे आनँद होय ॥५॥ 
भजन रूप भण्डार में दो प्रकार का महान धन१ है एक तो वैराग्य और दूसरा आत्मज्ञान । वैराग्य से व्यक्ति राग रहित व्यवहार करता है, अत:वह संसार में सुखी रहता है और आत्मज्ञान से आगे आनन्द स्वरूप हो जाता है । भजन करने से वैराग्य और ज्ञान स्थिर रहते हैं । 
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रैणाइर१ रंकार२ मधि, मुकता३ रिधि सिधि माँहिं । 
जन रज्जब मथ जापकर, रत्नहुं टोटा नाँहिं ॥६॥ 
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समुद्र१ में रत्न रूप धन बहुत था, देव दानवों ने मन्थन करके निकाला, वैसे ही हे साधक ! राम के बीज मंत्र "राँ"२ में ऋद्धि सिद्धि रूप धन बहुत३ है, जाप रूप मन्थन कर, फिर तेरे पास भी कमी नहीं रहेगी । 
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साहिब के घर सौंज१ बहु, सुमिरन सम कोइ नाँहिं । 
रज्जब भज भगवंत ह्वै, सकल बोल ता माँहिं ॥७॥ 
ईश्वर के घर में नाना प्रकार की सामग्री१ है किन्तु स्मरण के समान कोई भी नहीं है । भजन करने से प्राणी भगवान् बन जाता है, संपूर्ण शास्त्र तथा सभी संतों का वचन उसे भगवत् स्मरण में लगाने की ही प्रेरणा करते हैं । 
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रज्जब बंदा बंदगी, कियों सरे सब काज । 
सेवक सेवा कर लहै, श्री सहित शिर-ताज ॥८॥ 
भक्त जब भक्ति करता है तब ही उसके विक्षेप निवृत्तिपूर्वक सभी कार्य सिद्ध होते हैं । इस कारण सेवक सेवा करके माया और माया पति परमात्मा को भी प्राप्त करता है ।
(क्रमशः)

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