मंगलवार, 30 जनवरी 2018

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🌷🙏#daduji🙏🌷
🌷🙏卐 सत्यराम सा 卐🙏🌷
*दादू इस आकार तैं, दूजा सूक्षम लोक ।*
*तातैं आगे और है, तहँ वहाँ हर्ष न शोक ॥* 
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com  
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दो कौड़ी के कार्योँ में जीवन गंवा देना गलत है । दर्शन है क्रांति । दर्शन घटित हो जाए, तो जो उचित है अपने आप आचरण वैसा ही होगा, सहज । वापस मूल को स्मरण करना है । प्रत्येक मनुष्य इसमें योगदान कर सकता है । अपने भीतर उसको जगा कर, अपने भीतर उसको देख कर आनंद का स्त्रोत बन सकता है । उसके जीवन का आनंद औरोँ में जगाएगा प्यास, औरोँ में अतृप्ति पैदा करेगा, औरोँ में प्राण कंपित होंगे, औरोँ में परिवर्तन हो सकता है ।
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सामान्यतः मनुष्य सोचता है, आनंद मिलेगा कभी कल भविष्य में । और उसके लिये प्रयासरत होता है । आनंद अभी इसी क्षण यहीँ आविष्कृत हो सकता है । मनुष्य आनंद भीतर लिये हुए है । केवल आनंद को उघाड़ने के विज्ञान को जान लेना है । उस विज्ञान को ही धर्म कहते हैँ । आत्मा दिखाई नहीँ पड़ती, इसलिये स्वाभाविक है कि निष्कर्ष इस जगत ने लेना शुरु कर दिया कि आत्मा नहीँ है । जो दिखाई नहीँ पड़ता है, वह नहीँ है, ऐसा इसके पक्ष में तर्क दिया जाता है । समस्त सिद्धोँ का तर्क दूसरा है ।
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उनका कहना है : जो दिखाई पड़ता है, वो सार्थक नहीँ है; जो दिखाई देने वाले के पीछे है, उसका मूल्य है । जिसको दिखाई पड़ता है, उसका मूल्य है । इस अंतर को न समझा, तो धर्म को समझा न जा सकेगा । धर्म उसकी खोज है जिसको सब दिखाई पड़ रहा है, उस अदृश्य द्रष्टा की खोज है जिसको सब दिखाई पड़ रहा है । पदार्थ को पदार्थ का बोध नहीँ हो सकता । जिसे पदार्थ का और दूसरोँ का बोध हो रहा है, वो अपनी आत्यंतिक सत्ता में जड़ नहीँ हो सकता । ये होश, ये दिखाई पड़ना,ये जड़ की सामर्थ्य से परे है ।
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इस होश को चैतन्य कहते है । इस चैतन्य की जो इकाई है उसे आत्मा कहते हैँ । इस आत्मा को उपलब्ध कर लेने पर जीवन में आनंद और शांति उपलब्ध होती है । मनुष्य जीवन में मुक्ति को उपलब्ध होता है । इसके अभाव में जीवन एक दुख-यात्रा है । तो क्या मनुष्य ये समझे कि वह आत्मा को उपलब्ध नहीँ है? ये असंभव है, आत्मा को मनुष्य उपलब्ध है, लेकिन मनुष्य को उसका बोध नहीँ है । जिसे सबका बोध है, उसे स्वयं का बोध नहीँ है । उसके प्रति होश, जागरण, बोध नहीँ है ।
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ये होश यदि घटित हो जाए तो जीवन तत्क्षण रुपांतरित हो जाता है । एक नए लोक में मनुष्य प्रविष्ट हो जाता है । उस लोक में न दुख है, न मृत्यु है, न पीड़ा है, न संताप है । वहां मनुष्य जान लेता है एक अविच्छिन्न शांति के प्रवाह को, उस चैतन्य को जिस चैतन्य में रंचमात्र भी दुख प्रवेश नहीँ कर सकता ।

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