卐 सत्यराम सा 卐
*श्री दादू अनुभव वाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*विचार का अँग १८*
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दादू जिन यहु दिल मंदिर किया, दिल मंदिर में सोइ ।
दिल माँहीं दिलदार है, और न दूजा कोइ ॥७॥
जिस परमात्मा ने अन्त:करण - मन्दिर बनाया है, वही साक्षी रूप से अन्त:करण में रहता है । अन्त:करण में स्थित परमात्मा ही हमारा परम मित्र है, अन्य दूसरा कोई नहीं ।
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मीत तुम्हारा तुम कने१, तुम ही लेहु पिछान ।
दादू दूर न देखिये, प्रतिबिम्ब ज्यों जान ॥८॥
हे साधको ! जैसे सूर्यादिक का प्रतिबिम्ब सर्वत्र रहता है किन्तु जलादिक बिना नहीं दीखता । वैसे ही तुम्हारा परम मित्र परब्रह्म व्यापक होने से तुम्हारे पास१ ही है, किन्तु ब्रह्माकार वृत्ति बिना नहीं भासता । अत: अपनी वृत्ति को ब्रह्माकार करके तुम ही उसे पहचानो ।
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*विरक्तता*
दादू नाल१ कमल जल ऊपजे, क्यों जुदा जल माँहिं ।
चँद हि हित चित प्रीतड़ी, यों जल सेती नाँहिं ॥९॥
९ - ११ में वैराग्यपूर्वक विचार की विशेषता दिखा रहे हैं - कमल नारी१(कमोदनी) जल में उत्पन्न होती है फिर भी जल में न रहकर जल से ऊपर क्यों रहती है ? उत्तर - उसकी प्रीति जैसी चन्द्रमा में होती है, वैसी जल में नहीं होती । इसीलिये जल से ऊपर रहती है । वैसे ही वैराग्य - विचार द्वारा साधक के चित्त में जैसे परब्रह्म के लिये प्रीति होती है, वैसी सँसार के लिये नहीं होती । अत: वह सँसार में रह कर भी सँसार से असंग ही रहता है ।
(क्रमशः)
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