बुधवार, 31 जनवरी 2018

= भजन भेद का अंग २१(३७-४०) =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*नखसिख सब सुमिरण करैं, ऐसा कहिये जाप ।*
*अन्तर बिगसै आत्मा, तब दादू प्रगटै आप ॥* 
*अंतरगत हरि हरि करे, तब मुख की हाजत नांहि ।*
*सहजैं धुनि लागी रहै, दादू मन ही मांहि ॥* 
*दादू सहजैं सुमिरण होत है, रोम रोम रमि राम ।*
*चित्त चहूँट्या चित्त सौं, यों लीजे हरि नाम ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*भजन भेद का अंग २१*
रज्जब उर१ कर२ के भजन, कछु पाड़ा३ पड़ जाय । 
यथा रुपया ठौर बिन, गैरी४ नाम कहाय ॥३७॥ 
जैसा रुपया जिस देश का होता है उससे भिन्न राज्य में अन्य४ देश का कहलाता है, वैसे ही हृदय१ के भजन और हाथ२ से माला फेरने के भजन में कुछ अन्तर३ पड़ ही जाता है, दोनों सम नहीं होते हृदय का भजन ही श्रेष्ठ कहलाता है । 
रज्जब उर१ कर२ के भजन, अंतर ह्वै द्वै हाथ । 
आतम अबला३ धाम में, वर४ बाहर निज नाथ ॥३८॥ 
हृदय१ के भजन और हाथ२ से माला फेरने के दो हाथ जितना अंतर है अर्थात भेद रहता है । नारी३ तो घर में हो और उसका स्वामी४ बाहर हो तब नारी को स्वामी के पास रहने का सा सुख नहीं मिलता, वैसे ही जीवात्मा के हृदय में चिन्तन होने से जो आनन्द मिलता है, वैसा माला फेरने से नहीं मिलता, कारण माला फेरने से हृदय में प्रभु की अनुभूति नहीं होती । 
रंक महल रंकार मध्य, रहे जु आतम राम । 
सो सुख मुख नहिं कहि सकै, सुरति लहै विश्राम॥३९॥
राम मंत्र के बीज "राँ" रूप रंग महल में आत्म स्वरूप राम रहते हैं अर्थात "राँ" का जप करने से राम का दर्शन होता है और दर्शन से होने वाला सुख मुख से नहीं कहा जाता, किन्तु मनोवृत्ति को पूर्ण शांती मिलती है । 
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रज्जब सुमिरन सदन१ मध्य, धरे२ अधर३ के सु:ख ।
जे कोइ पैठे प्राणियाँ, कदे न पावे दु:ख ॥४०॥ 
प्रभु-स्मरण रूप धाम१ मायिक२ सुख तथा ब्रह्म३ सुख दोनों ही है, जो कोई प्राणी उसमें प्राणी उसमें प्रवेश करता है, वह कभी भी दु:ख नहीं पाता अर्थात परमात्मा का स्मरण करने से दोनों प्रकार का ही सुख प्राप्त हो जाता है ।
(क्रमशः)

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