मंगलवार, 30 जनवरी 2018

= भजन भेद का अंग २१(३३-३६) =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*दादू मन माला तहँ फेरिये, जहँ दिवस न परसै रात ।*
*तहाँ गुरु बाना दिया, सहजैं जपिये तात ॥* 
*दादू मन माला तहँ फेरिये, जहँ प्रीतम बैठे पास ।*
*आगम गुरु थैं गम भया, पाया नूर निवास ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*भजन भेद का अंग २१*
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माया घट मणियें सबै, सुमिरे साँई साध । 
रज्जब तुच्छ तसबीह रही, माला मिली अगाध ॥३३॥ 
माया रचित सभी शरीर मणियें है जैसे मणिये पर नाम उच्चारण किया जाता है वैसे ही प्रत्येक शरीर को ब्रह्म रूप ही देखते हैं, संत लोग इसी प्रकार परब्रह्म का स्मरण करते हैं । जिन संतों को उक्त अगाध ब्रह्म का साक्षात्कार कराने वाली माला मिली है, उनके हाथ से काष्ठादि की माला दूर ही रही है ।
रज्जब माला माँहिंली, जा को सद्गुरु देय । 
सो सुन कांधे काठ का, कबहुँ भार न लेय ॥३४॥ 
जिस को सद्गुरु कृपा करके मानस चिन्तन रूप भीतरी माला देते हैं अर्थात मानस चिन्तन की युक्ति बता देते हैं, हे साधको ! सुनो वह अपने कंधे पर काष्ठादि की मालाओं का भार भी नहीं धारण करता । 
रज्जब सुमिरन माहिला, माला रहित सु होय । 
पंच पचीसों त्रिगुण मन, विरला फेरे कोय ॥३५॥ 
भीतर का स्मरण माला रहित ही होता है, पंच ज्ञानेन्द्रिय, पच्चीस प्राकृति, त्रिगुण इन सब को भगवत् परायण करना रूप माला कोई विरला संत ही फेरता है । 
विदा हो बाइक१ वदन२, छूटहि श्वास शरीर । 
तब काष्ठ कर कौन के, सुमिरन सुरति सधीर ॥३६॥ 
जब मुख१ से वचन२ बंद हो जाता है और शरीर से श्वास निकलने वाले होते हैं तब काष्ठ की माला किसके हाथ में फिरती है, किन्तु वृत्ति से होने वाला स्मरण तो धीर पुरूषों का उस समय भी होता रहता है ।
(क्रमशः)

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