







*सावण हरिया देखिये, मन चित ध्यान लगाइ ।*
*दादू केते जुग गये, तो भी हर्या न जाइ ॥*
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साभार ~ Krishnacharandas Aurobindo
३०२
आंधळ्यासि जन अवघे चि आंधळे ।
आपणासि डोळे दृष्टी नाहीं ॥१॥
जो अंधा होता हैं(जिसे ज्ञान नही होता या जिसका शास्त्ररुप ज्ञान या संतों के वचनों में विश्वास नही होता) उसके लिये सारा जग अंध होता हैं। अपनी आँखो में जब देखने की क्षमता न हो तब ऐसी अँधता आती है।
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रोग्या विषतुल्य लागे हें मिष्टान्न ।
तोंडासि कारण चवी नाहीं ॥२॥
रोगी को मिठाई कड़वी लगती है क्योंकि बुखार के कारण उसकी जिव्हा से स्वाद चला गया।
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तुका म्हणे शुद्ध नाहीं जो आपण ।
तया त्रिभुवन अवघें खोटें ॥३॥
संत तुकाराम महाराज कहते हैं जो खोटा होता है या जिसके दृष्टि में खोटेपणा भरा है उसे सारा सँसार खोटा नज़र आता है।
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३०३
छळी विष्णुदासा कोणी ।
त्याची अमंगळ वाणी ॥१॥
जो विष्णुदास का छल करता है उसकी वाणी अमंगल है।
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येऊं न द्यावा समोर ।
अभागी तो दुराचार ॥ध्रु.॥
उसे अपने सामने आने मत दो(या उसके सामने न जाओ) ऐसे संतनिंदक अभागे और दुराचारी होते हैं।
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नावडे हरिकथा ।
त्याची व्यभिचारीण माता ॥२॥
जिसे हरिकथा अच्छी ना लगे उसकी माता व्याभिचारीण हैं...(जो अपने पति के अतिरिक्त अन्य पुरुषों को न देखे या पुत्र समान देखे ऐसी सतीयाँ धर्मपालन करने से ही होती हैं... ऐसी माताओं की श्रध्दा केवल हरिकथा में ही होती हैं संसार की झूठी कथाओं में नहीं... और ऐसी माताओं के पुत्रों को ही हरिकथा में श्रध्दा होगी। हरिकथा में श्रध्दा न हो तो समझना चाहिये की अपनी माता में दोष है... उसे दूर करने का उपाय भी हरिकथा /संत-समागम और हरिनाम संकीर्तन ही हैं....अच्छा न लगे तब भी उसमें जबर्दस्ती से मन को लगाओ... तब पुर्वपाप और दोषों का परिमार्जन होकर हरिकथा में रुचि होगी।
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तुका म्हणे याति ।
भ्रष्ट तयाचि ते मति ॥३॥
जो संतों की निंदा करे... उनसे छल करे ... जिसकी हरिकथा में श्रध्दा न हो... संत तुकाराम महाराज कहते हैं कि मति भ्रष्ट हुई है ऐसे जानो।
जगद्गुरु संत तुकाराम महाराज की जय
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