卐 सत्यराम सा 卐
*श्री दादू अनुभव वाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*विचार का अँग १८*
सारग्राही - अँग के अनन्तर अद्वैत - प्रधान विचार करने के लिये "विचार का अँग" के कथन में प्रवृत्त मँगल कर रहे हैं -
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दादू नमो नमो निरंजनँ, नमस्कार गुरुदेवत: ।
वन्दनँ सर्व साधवा, प्रणामँ पारँगत: ॥१॥
जिनकी कृपा से साधक द्वैत से पार होकर अद्वैत विचार द्वारा परब्रह्म को प्राप्त होता है, उन निरंजन राम, सद्गुरु और सर्व सँतों को हम अनेक प्रणाम करते हैं ।
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*प्रज्ञान परिचय*
दादू जल में गगन, गगन में जल है, पुनि१ वै गगन निरालँ२ ।
ब्रह्म जीव इहि विधि रहे, ऐसा भेद विचारँ ॥२॥
२ - ३ में प्रज्ञान(जीव) का परिचय दे रहे हैं - जैसे जल में प्रतिविम्ब रूप से आकाश विद्यमान है तथा जल की सत्ता - आधार भूत व्यापक आकाश में है, अत: जल भी आकाश में है, इस प्रकार बाहर - भीतर आकाश का जल से सँबँध होने पर भी आकाश जल के आर्द्रतादि धर्मों से युक्त नहीं होता, वैसे ही जीव(बुद्धि) में शुद्ध कूटस्थ चैतन्य प्रतिबिम्ब रूप से विद्यमान है तथा जीव(बुद्धि) भी आधार भूत शुद्ध चैतन्य के आश्रित है । अत: बाहर व भीतर जीव का ब्रह्म से सँबँध होने पर भी वह ब्रह्म, जीव(बुद्धि=अंत:करण) के धर्म अल्पज्ञत्वादि से युक्त नहीं होता । जीव और ब्रह्म के इस भेद का विचार करना चाहिये ।
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ज्यों दर्पण में मुख देखिये, पानी में प्रतिबिम्ब ।
ऐसे आतमराम है, दादू सब ही संग ॥३॥
जैसे दर्पण में मुख का और जल में सूर्यादि का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है, वैसे ही ब्रह्म का प्रतिबिम्ब अंत:करण में आत्म रूप से रहता है । उसी की सत्ता से सब व्यवहार चलता है । अत: ब्रह्म सब के साथ ही है ।
(क्रमशः)
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