रविवार, 28 जनवरी 2018

= भजन भेद का अंग २१(२५-२८) =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*दादू परम तेज तहँ मैं गया, नैनहुँ देख्या आइ ।*
*सुख संतोष पाया घणा, ज्योतिहिं ज्योति समाइ ॥* 
*अर्थ चार अस्थान का, गुरु सिष कह्या समझाइ ।*
*मारग सिरजनहार का, भाग बड़े सो जाइ ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*भजन भेद का अंग २१*
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जन रज्जब विछुड़त मरहिं, जिनके अमल अराध । 
मनसा वाचा कर्मना, साखी सद्गुरु साध ॥२५॥ 
जिनके हृदय में स्वार्थ-मल रहित परमात्मा की भक्ति है, वे प्रभु के वियोग दु:ख से व्यथित होकर मर जाते हैं । यह बात हम मन, वचन, कर्म से सत्य ही कहते हैं, इसमें सद्गुरु और संतों की भी साक्षी है । 
निति निवृत्ति१ प्रभुता२ प्रभु, चतुर स्थान कर गौन । 
रज्जब पावे प्राण पति, भृत्य३ भगवंत सु भौन४ ॥२६॥ 
व्यवहारिक नीति, वैभव२ स्वामीपना और वैराग्य१ का अभिमान, इन चारों से दूर रहने वाला भक्त३ ही भगवान के भवन४ को जाकर प्राणपति परमेश्वर को प्राप्त करता है । 
शरीअत सेव शरीर की, तरीकते दिल राह । 
माँहिं मारफत कीजिये, हकीकत मिल जाह ॥२७॥ 
मुसल्मानी धर्म की चार अवस्थाओं द्वारा भजन-रहस्य बता रहे हैं - दोनों कानून रूप शरीअत में तो भजन द्वारा भी शरीर की ही सेवा में लगा रहता है । शुद्धाचरण रूप तरीकत में मन से प्रभु का मार्ग पकड़ता है । अध्यात्म विद्या रूप मारफत में ईश्वरीय ज्ञान का विचार करता है । मूल तत्त्व ब्रह्म में निष्ठा रूप हकीकत में पहुँचने पर ब्रह्म में ही मिल जाता है । इस प्रकार अवस्था भेद से भजन भेद भी होता है । 
धर्म योग ब्रह्मांड मध्य, कर्म योग पिंड माँहिं । 
भक्ति योग सो प्राण घर, अगम योग ठहराँहि ॥२८॥ 
धर्म योग सभी ब्रह्माण्ड में व्याप्त है वा धर्म योग का साधक ब्रह्मांड में ही रहता है । कर्म योग व्यक्ति की भावना से भिन्न-भिन्न होने से शरीर में ही है वा शरीर से होता है भक्ति योग प्राणी के हृदय रूप घर में होता है । उक्त तीनों योगों से प्राणी गतिशील रहता है किन्तु ब्रह्मचिन्तन द्वारा प्राप्ति रूप अगम योग से योगी ब्रह्म में स्थिर होकर ब्रह्म रूप ही हो जाता है । अत: ब्रह्म चिन्तन ही रहस्यमय भजन है ।
(क्रमशः)

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