卐 सत्यराम सा 卐
*श्री दादू अनुभव वाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*सारग्राही का अँग १७*
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*उभय असमाव*
जहं दिनकर तहं निश नहीं, निश तहं दिनकर नाँहिं ।
दादू एकै द्वै नहीं, साधन के मत माँहिं ॥२४॥
२४ - २५ में दो विरोधी एक साथ नहीं रहते, यह कहते हैं - जहां सूर्य होता है, वहां रात्रि नहीं होती, जहां रात्रि होती है वहां सूर्य नहीं होता । वैसे ही ज्ञान के स्थान में अज्ञान और अज्ञान के स्थान में ज्ञान नहीं रहता । सँतों के सिद्धान्त में जहां अद्वैत ब्रह्म की भक्ति होती है, वहां माया रूप द्वैत नहीं होता ।
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दादू एकै घोड़े चढ चलै, दूजा कोतिल१ होइ ।
दूहुँ घोड़ों चढ बैसताँ, पार न पहुंचा कोइ ॥२५॥
इति सारग्राही का अँग समाप्त ॥ १७ ॥ सा - १७४५ ॥
जिसके साथ दो अश्व होते हैं, तब एक पर चढकर चलता है और दूसरे को खाली१ रखता है । कारण, दोनों पर चढ़ कर बैठने से तो आज तक कोई भी जाने योग्य स्थान को नहीं पहुंचा । वैसे ही प्रवृत्ति और निवृत्ति का एक साथ निर्वाह नहीं हो सकता, प्रवृत्ति को गौण और निवृत्ति को मुख्य रख कर ब्रह्म - परायण रहने से ही प्राणी सँसार के पार पहुंच सकता है । सच्चे साधक को चाहिये कि वह ब्रह्म - चिन्तनादि आध्यात्मिक कार्यों को ही प्रमुखता दे साँसारिक व्यवहार को तो उसको सहायक रूप में ही रखें ।
इति श्री दादू गिरार्थ प्रकाशिका सारग्राही का अँग समाप्त: ॥१७॥
(क्रमशः)
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