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卐 सत्यराम सा 卐
*अंतरगत हरि हरि करे, तब मुख की हाजत नांहि ।*
*सहजैं धुनि लागी रहै, दादू मन ही मांहि ॥*
*दादू सहजैं सुमिरण होत है, रोम रोम रमि राम ।*
*चित्त चहूँट्या चित्त सौं, यों लीजे हरि नाम ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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*भजन भेद का अंग २१*
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रज्जब भय भगवन्त के, रोम कहें उठ राम ।
अऊंट१ कोङि रट एक फल, एक हिये कहि राम ॥२१॥
ह्रदय में एक राम का चिन्तन करने से राम का वियोग अनुभव होकर राम वियोग भय के द्वारा रोम खङे होकर राम-राम करने लगते हैं, इस प्रकार साढे तीन१ कोटि राम-नाम का जाप एक साथ होता रहता है, उसका एक अद्वैत ब्रह्म की प्राप्ति ही फल होता है ।
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ऊँचा नीचा होय जग, कर डंडौत निमाज ।
रोम रोम रज्जब भया, गुरु गोविन्द के काज ॥२२॥
जगत् के मनुष्य ऊँचे तथा नीचे होकर दंडवत और नमाज द्वारा उपासना करते हैं किन्तु हमारे तो गोविन्द और गुरु की कृपा रूप कार्य से रोम रोम से ही उपासना हो रही है ।
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अठारहभार ऊभी भई, आये अविगत१ नांउ२ ।
रज्जब जीये रोम रस, सो बेला३ बलि जांउ॥२३॥
मन इन्द्रियों के विषय परमात्मा१ का नाम२ हृदय में आने से रोमावलि खड़ी हो गई और जिस समय में रोम रोम से चिन्तन द्वारा रसपान करते हुये जीवित रहे, संतों के उस समय३ की मैं बलिहारी जाता हूँ ।
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रज्जब माया ब्रह्म का, रोम रोम रस पीन ।
सो विहड़े१ तिन विछुड़तै, जैसे जल बिन मीन ॥२४॥
जो माया का चिन्तन रूप रस रोम रोम से पान करता है, वह माया से बिछुड़ने से और जो ब्रह्म का चिन्तन रूप रस-रोम रोम से पान करता है, वह ब्रह्म के वियोग१ से जैसे जल बिन मच्छी मर जाती है, वैसे ही वह भी शरीर का त्याग देता है ।
(क्रमशः)
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